मेरी नादानी पर तरस खाइएगा, मैंने कल पहली बार अखबार पढ़कर जाना कि कोई ‘फादर्स डे’ भी होता है। आपने इसके बारे में पहले कब सुना, सच-सच बताइएगा! वेलेंटाइन मैंने सुना था। मदर्स डे भी सुना। पर फादर्स डे का पर्व कभी सुना हो, याद नहीं पड़ता। आज नेट पर समझा कि अमेरिका में (और कहाँ?) इसका आविष्कार बीसवीं सदी में ही हो गया था। पता नहीं हमारे यहाँ कैसे वह इतने सुस्त-कदम पहुंचा। जो हो, बाजार की देन है। सो कल उपहार और मुबारक-कार्ड वाली दुकानों के शीशों पर परचे चिपके देखे, याद दिलाने को कि आज पिता का दिन है, कुछ ले जाइए!
विडम्बना देखिए कि हमारी परंपरा में जब “पिता का दिन” कहते थे, उसका मतलब होता था दिवंगत पिता की याद में श्राद्ध करने का दिन है! अब तो जीते-जी ‘पिता-का-दिन’ मनाया जाने लगा! हालांकि हम जानते हैं कि यह पर्व हमारे बच्चे नहीं मना रहे, बाजार मना रहा है। संयोग से मैं कल जयपुर में दिन-भर बेटे के साथ था। सौभाग्य से उसको इस नए बाजार की हवा नहीं लगी, वरना कौन जाने वह भी किसी विदेशी पेड़ के चित्र वाला महंगा कार्ड खरीद लाता! शाम को दिल्ली लौटते वक्त मैंने अपने पिताजी को फोन किया, तब मुझमें भी दूर तक यह अहसास कायम न था कि ‘फादर्स डे’ है, वरना हम दोनों थोड़ा इस पर हंस लेते!
… जो हो, भैया दूज, रक्षा-बंधन, करवा चौथ (मैं किसी के हक में नहीं) आदि हमारी रूढ़ियाँ हैं। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका आदि उनकी। हाँ, ‘एक दिन कुत्ते का’ भी शायद वहीं की रूढ़ि है। पर हमारे यहाँ तो ऐसा दिन रोज मनाया जाता है: कुत्ते का भी, कबूतर का भी, गाय का भी, पेड़ का भी। बस, इतना है कि उसमें न बाजार का दबाव है, न उसकी पुकार!
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.