सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट में कटौती का विरोध

budgetनई दिल्ली, मौजूदा वित्तीय वर्ष 2014-15 के लिए सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट आवंटन में कटौती संबंधी कई ख़बरें मीडिया में आईं है. इसका मतलब है कि 2014-15 के बजट पूर्वानुमान जो इस साल जुलाई में पेश किया गया था, उसे संशोधित करते हुए इन आवंटनों में कटौती होगी. इस मुद्दे की गंभीरता से पड़ताल करने और इस पर विस्तृत बहस कराने की जरूरत है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और प्रमुख अर्थशास्त्री जयति घोष कहती हैं, “बजट में इस तरह की कटौती अमानवीय और गलत है. सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटन पहले से काफी कम है और उसमें और कमी की जा रही है. लेकिन यह किस कीमत पर हो रहा है.?” जयति घोष ने सरकार से अपील की है कि वह संसद, मीडिया और देश के आमलोगों की राय के उलट जाकर चुपके चुपके इन कटौतियों को लागू नहीं करे.
प्रस्तावित कटौती से आने वाले संकट की ओर संकेत करती हुई पॉजिटिव वीमेन नेटवर्क की कौशल्या ने बताया कि एचआईवी संक्रमण का बजट 1785 करोड़ से घटाकर 485 करोड़ रुपये किया जा रहा है. कौशल्या के मुताबिक,“यह कटौती एचआईवी संक्रमित हजारों महिलाओं, पुरुषों और बच्चों के लिए मृत्यु प्रमाणपत्र जैसा है.” कौशल्या के मुताबिक बजट आवंटन में इस कटौती से एचआईवी संक्रमित लोगों के जीवन पर असर तो पड़ेगा ही साथ में एचआईवी महामारी के तौर पर भी फैल सकता है.
पिछले कुछ सालों के दौरान, वित्त मंत्रालय द्वारा इस बजट कटौती के पक्ष में एक तर्क ये दिया जा रहा है कि सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के लिए दिए गए पैसे खर्च नहीं होते. यानी की राज्य सरकारों द्वारा इन कार्यक्रमों को लागू करने वाली एजेंसिया स्वीकृत आवंटन का पूरा हिस्सा इस्तेमाल नहीं कर पातीं, इसलिए साल के मध्य में संशोधित आकलन के दौरान आवंटन में कटौती की जाती है. विडंबना ये है कि ये तर्क एकदम मान्य नहीं है, क्योंकि पिछले कुछ सालों के दौरान सामाजिक क्षेत्र के आवंटन के इस्तेमाल में लगातार सुधार हुआ है.
सेंटर फॉर बजट एंड गर्वनेंस एकाउंटिबलिटी (सीबीजीए) के सुब्रत दास कहते हैं, “समय आ गया है कि संशोधित बजट पूर्वानुमान की प्रक्रिया को संसद के अंदर किया जाना चाहिए और पब्लिक डोमेन के तहत इस पर बहस होनी चाहिए. ताकि कोई कार्यकारी प्राधिकरण संसदीय प्रक्रिया को कमतर नहीं आंक पाए.” सीबीजीए के अध्ययन बताते हैं कि अगर तीन समस्याओं का हल तलाश लिया जाए तो सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों का बजट का इस्तेमाल और उसे खर्च करने की गुणवत्ता दोनों में काफी सुधार होता है. ये तीन समस्याएं हैं- योजनाओं के विकेंद्रीकरण में कमी, केंद्र की पैसे मिलने में दरी और सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की कमी के चलते अपर्याप्त संस्थागत क्षमता.
ऐसे में जरूरत केंद्र सरकार द्वारा उन नीतिगत बदलावों की शुरुआत की है जिससे संस्थागत समस्याओं को दूर किया जा सके ना कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के आवंटन में कटौती करने की. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रवीण झा ने इस मुद्दे पर कहा, “इन कटौतियों के बारे में पब्लिक डोमेन में चर्चा होनी चाहिए. ताकि हमें सामाजिक क्षेत्र से जुड़े अलग अलग मंत्रालयों के मतभेदों के बारे में पता चलेगा. वित्त मंत्रालय ने इन कटौतियों को बिना किसी वजह के थोपा है क्योंकि उनका लक्ष्य राजकोषीय घाटे की दर को 4.1 फ़ीसदी पर लाना है.”
मनरेगा में तो कई राज्यों की मांग को पूरा नहीं किया जाएगा. दस राज्यों ने तो पिछले दो-तीन महीनों में केंद्र से ज्यादा संसाधनों की मांग की है. ऐसे में आवंटित राशि के कम इस्तेमाल का तर्क तो मनरेगा के मामले में सही नहीं है. राइट टु फूड कैंपेन की दीपा सिन्हा और जन आवाज के निखिल डे बजट में कटौती से होने वाले नुकसान की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि इससे आम गरीबों की शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और रोजगार संबंधी मुश्किलें कई गुना बढ़ेंगी. उन्होंने कहा, “ लोगों के पास काम नहीं है, मनरेगा के तहत मिलने वाली मज़दूरी भी नहीं है ऐसे में 3000 करोड़ रुपये की कटौती तो मानवाधिकार के उल्लंघन का मामला है.”
ऐसे में जाहिर है कि बजच आवंटन में कटौती की सबसे अहम वजह यही है कि केंद्र वित्त मंत्रालय 2014-15 के संशोधित बजट पूर्वानुमान में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.1 फीसदी की दर तक लाना चाहता है. चूंकि जीडीपी उम्मीद के विपरीत बहुत धीमी गति से बढ़ रही है, ऐसे में बजट में अनुमानित कर राजस्व की प्राप्ति नहीं होगी. ऐसे में साफ है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय राजकोषीय घाटे को कम करने के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट में कटौती को आसान विकल्प मान रहा है. आईआईटी दिल्ली की प्रोफेसर रितिका खेड़ा कहती हैं, “संशोधित पूर्वानुमान हमेशा गरीबों और सामाजिक क्षेत्र के हितों के खिलाफ में होते हैं. भारत का कर-जीडीपी का अनुपात बेहद कम है और इस तरह यह और भी बदतर होगा.”
बजट में प्रस्तावित कटौतियों से ये भी संकेत मिलता है कि नई सरकार बजट में अपनी प्राथमिकताओं को बदल सकती है. केंद्र सरकार पिछले कुछ महीनों में घोषित प्रमुख योजनाओं, मसलन स्मार्ट सिटी योजना, गंगा की सफ़ाई और जीर्णोद्वार योजना, स्वच्छ भारत अभियान और आधारभूत ढांचों के निर्माण के लिए बजट आवंटन की घोषणा कर सकती है. एक विकास के काम को दूसरे विकास के काम पर प्राथमिकता देकर मौजूदा वित्तीय संसाधनों में ही राशियों के वितरण के बजाए सरकार को बजट को विस्तार देने की कोशिश करनी चाहिए और यह टैक्स-जीडीपी के अनुपात को बढ़ाकर किया जा सकता है.
सामाजिक क्षेत्र के बजट आवंटन में कटौती से देश में बड़ी संख्या में जीवन यापन कर रहे गरीब और हाशिए के लोगों का जीवन प्रभावित होगा. ऐसे में सरकार को मौजूदा वित्तीय साल में सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के लिए बजट में कटौती नहीं करनी चाहिए और अगले वित्तीय साल के दौरान इसे बढ़ाने पर जोर देना चाहिए.
– सुब्रत दास ( सेंटर फॉर बजट एंड सोशल एकाउंटिबलिटी), निखिल डे (जन आवाज)

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