ब्रजेश मिश्र निस्संदेह भारतीय विदेश सेवा के सबसे काबिल अधिकारियों में से एक थे. वे भारत के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रमुख सचिव भी थे.
एनडीए के शासनकाल में जितने भी वरिष्ठ मंत्री थे, उनसे कहीं ज्यादा हैसियत थी ब्रजेश मिश्र की. एनडीए शासनकाल में विदेश नीति के जितने भी महत्वपूर्ण फैसले हों, पोखरण-2 के बाद भारत का बचाव करना हो, कश्मीर हो, कारगिल हो, वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा हो, इन सबमें ब्रजेश मिश्र की पर्दे के पीछे जरूर भूमिका रहती थी.
वाजपेयी के आँख और कान
उनका क्लाउट इतना था कि कारगिल युद्ध के बाद सुब्रमण्यम कमेटी ने सिफारिश की थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को कोई और जिम्मेदारी न दे जाए. बावजूद इसके वे एनएसए के पद पर रहते हुए प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव भी थे.
प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ उनकी इतनी बनती थी कि उनके साथ उठना-बैठना, नाश्ता करना, भोजन करना तक उनके साथ होता था.
आजादी के बाद भारतीय विदेश सेवा में एक फैशन-सा बन गया था कि अधिकारी या तो कृष्णा मेनन का अनुसरण करते थे या फिर टीएन कौल का जो कि सोवियत संघ समर्थक लाइन लेते थे.
लेकिन ब्रजेश मिश्र ने इससे हटकर लाइन ली. हालांकि आरंभ में उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा पर बाद में इसका उन्हें इसका लाभ भी हुआ.
इंदिरा गांधी से ब्रजेश मिश्र की नहीं बनी, जिसकी वजह से उन्हें संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि के पद से हटा दिया गया.
दिलचस्प बात ये है कि वे मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र के बेटे थे जिनकी इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने में बहुत बड़ी भूमिका थी और सिंडीकेट के खिलाफ उनकी लड़ाई में भी.
एक और चीज की वजह से ब्रजेश मिश्र को याद किया जाता है.
1970 के दशक में वे चीन में तैनात थे. ये वो समय था जब चीन के साथ कुछ ही समय पहले 1962 में भारत का युद्ध हुआ था और दोनों देशों के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे.
ऐतिहासिक भूमिका
एक मई 1970 को मई दिवस के मौके पर थेय्न आनमन चौक पर उनकी मुलाकात माओत्से तुंग से हुई.
कई देशों के प्रतिनिधि वहां मौजूद थे. सारे राजनयिकों से मिलने के बाद माओत्से तुंग ब्रजेश मिश्र के पास आए, बड़ी जोर से मुस्कराए और बड़ी देर तक उनसे हाथ मिलाते रहे.
अंत में माओत्से तुंग की टिप्पणी थी कि हम लोग कब तक लड़ते रहेंगे एक-दूसरे से.
एक तरह से ये एक शुरुआत थी भारत और चीन के बीच राजनीतिक संबंधों को पुन: स्थापित करने की. तो इसका श्रेय ब्रजेश मिश्र को जाता है.
वाजपेयी से उनकी बहुत नजदीकी थी. इसके पीछे शायद एक वजह ये भी हो कि दोनों ही मध्य प्रदेश से आते थे और विदेश नीति में भी दोनों की गहरी दिलचस्पी थी.
संयुक्त राष्ट्र संघ में वाजपेयी नियमित रूप से भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के तौर पर जाते थे और ब्रजेश मिश्र वहां स्थाई प्रतिनिधि थे भारत के.
संयुक्त राष्ट्र एक तरह से मीटिंग ग्राउंड था दोनों का.
अत्याधिक बेबाक
भारत-अमरीका परमाणु संधि का शुरू में उन्होंने काफी विरोध किया लेकिन जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें बुलाकर उसके बारे में बाकायदा ब्रीफ किया तो ब्रजेश मिश्र ने इस करार का विरोध करना छोड़ दिया.
मिश्रा कभी विवादों से घबराए नहीं और वाजपेयी के हटने के बाद उन्होंने अपने बयानों से लालकृष्ण आडवानी से लेकर मोदी तक सबको निशाना बनाया.
बहुत मुँहफट थे ब्रजेश मिश्र, जो कि एक राजनयिक का गुण नहीं होता है. लेकिन इन सबके बावजूद उन्हें भारत के महानतम राजनयिकों के रूप में याद किया जाएगा.