न हिफाजत कर सके, न लगा सके घावों पर मरहम..

जख्मों पर राहत का मरहम लगाने और पुनर्वास के लिए बन रही केंद्रीय योजना अब तक सरकारी फाइलों में ही झूल रही है। मामले को लेकर सुप्रीमकोर्ट से 1994 में मिले सीधे आदेश के बावजूद आलम यह है कि अब तक न तो आपराधिक क्षतिपूर्ति व पुनर्वास बोर्ड बन सका है और न ही दुष्कर्म पीड़ितों को आर्थिक राहत देने की योजना ही जमीन पर उतर पाई है।

ऐसा नहीं है कि योजना को लेकर तैयारी नहीं हुई। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के मुताबिक दुष्कर्म पीड़िता को डेढ़ लाख रुपये की आर्थिक मदद व पचास हजार रुपये की चिकित्सा, काउंसिलिंग व अन्य मदद मुहैया कराने की योजना पिछली पंचवर्षीय योजना में ही बनाई गई थी। इसके लिए 140 करोड़ रुपये का आवंटन भी किया गया था। हालांकि, योजना आयोग व केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के अभाव में इसके लिए बजट आवंटन को पिछले बजट में घटाकर 45 करोड़ रुपये किया गया। वहीं चालू वित्त वर्ष में यह मद घटाकर महज 19 करोड़ रुपये कर दी गई है।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक इस बाबत तैयार केंद्रीय योजना को अमली जामा पहनाने में अभी कुछ और वक्त लगेगा। योजना को लंबे समय तक जहां योजना आयोग से मंजूरी नहीं मिली, वहीं आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति से हरी झंडी हासिल करना बाकी है।

सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली घरेलू कामकाजी महिलाओं के मामले में अक्तूबर 1994 में दिए आदेश में दुष्कर्म पीड़ितों की मदद को आपराधिक क्षतिपूर्ति बोर्ड बनाने की जरूरत पर जोर दिया था। राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला व बाल विकास मंत्रालय ने मंथन के बाद पीड़ितों की आर्थिक मदद व अन्य जरूरी सहायता के लिए एक योजना तैयार की, जिसमें राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर बोर्ड बनाया जाना प्रस्तावित है। यह और बात है कि इस योजना में राज्यों को फंड ट्रांसफर व क्रियान्वयन का खाका ही तय नहीं हो पाया है। देश में हर साल औसतन 20 हजार से अधिक दुष्कर्म के मामले दर्ज होते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2008 में 21,467, 2009 में 21,397 और 2010 में 22,172 मामले दर्ज किए गए।

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