नई दिल्ली । हमारे आसपास के परिवेश के ताने-बानों से बुना हुआ नाटक ‘मौसम धूप छाँह का’ अनेक रस-भाव-मनोवृत्तियों के मेल से, सतरंगी काव्य-रचना बनकर पाठकों के मन को आह्लादित करता है। पाठक नाटक से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं और तल्लीन होकर ‘ब्रह्मानंद सहोदर आनंद’ की अनुभूति करते हैं। नाटक का फल भी यही है। आज भी हमारा समाज पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हुआ है, नाटक की केंद्रीय कथा इसी पर आधारित है, जिसे लेखिका ने अपने रचना-कौशल से रचा है। मित्रों के मध्य संवाद, नायक-नायिका की चर्चा, पिता-पुत्र, भाई-भाई से गहरी बातचीत, भाई-बहन की नोक-झोंक, सास-बहू का प्रेमिल संवाद, बहू-ससुर, देवर-भाभी का सहज वार्तालाप कथा प्रवाह के अनुकूल सहजता से प्रवाहित है। कथावस्तु की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह पाठकों की जिज्ञासा को निरंतर बनाए रखता है। आगे क्या होगा ? कौन सी घटना घटित होगी ? इसे जानने के मोह में बंधा हुआ पाठक, आदि से अंत तक एक साथ नाटक को पढ़ लेता है।
इस कथा में कई जीवन के मोड़ हैं एवं मन की अभिव्यक्ति में मुहावरों का खूब प्रयोग है। यथा- ‘मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है’, ‘किस के हिस्से में फूल और किसी के दामन में कांटे’, ‘इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते’, ‘असल से ब्याज़ ज़्यादा प्यारा होता है’ ,‘ज़िदगी ज़िदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं’ अर्थ विस्तार हेतु उर्दू का भी ख़ूब प्रयोग किया गया है यथा- इंसानियत, महारबानी, रिवायत, तजरूबे, इजाज़त, हकीकत, मोहब्बत, नसीब, ख्वाब, बंदा, ख़ामोशी, ज़ख्मी, लफ्ज, ताल्लुक, लम्हा, इम्तहान, ये शब्द-प्रयोग नाटक को वर्तमान काल के साथ जोड़ते हुए बोधगम्य बनाते है। एक विषम परिस्थिति में महात्मा गांधी के कथन का उद्धरण है ‘बन्दूक और ताकत से दुनिया का कोई भी मसला हल नहीं हो सकता और प्यार ही ऐसा रास्ता है, जो इन्सान के लिये अमन और शांति का फूल खिला सकता है’।
नाटक में कथा लालित्य के सभी गुण समाहित है नाटक का अंत अप्रत्याशित रूप से मोड़ लेता है। नाटक ‘मौसम धूप छांव का’ जीवन के विभिन्न स्तरों का प्रतिनिधित्व करता हुआ, वर्तमान परिवेश में कुछ प्रश्न भी छोड़ जाता है जिसका हम सबको मिलकर हल ढूंढना होगा। लेखिका काजल सूरी का यह अवदान नाट्य जगत को समृद्ध करें और यह नाटक नाट्य-आलेख से निकलकर मंच पर प्रदर्शित हो, यही मेरी शुभकामना है। यह समीक्षा जानी मानी नाटककार डॉ .प्रतिभा जैन द्वारा की गई है।