नई दिल्ली । इतिहास ऐसे ही तो नहीं बनते, कहानियाँ, क़िस्से और दस्ताने ज़ुबानी हो याँ तहरीर बस हवा में घुल के बह जाते हैं और देश दुनिया की सरहदों को तोड़ अनंत के पटल पर चिन्हित हो जाते हैं और तब बनते हैं युगों युगों के लिए अमिट इतिहास । यूँ तो सोहनी महिवाल की क़िस्सागोई से कोई अनजान नहीं है अनेकों बार पढ़ी और कलमबद्ध भी हुई है चलचित्र भी बने सुरों में भी गुँथीं गई, हर इक शय में बस शानदार ही दिखी। पर इस बार जब काजल सूरी की कलम की स्याही पन्नों पे बिखरी, भावनाओं ने शब्दों का जामा पहना और कल्पना ने क़रीब दो सदी पीछे की उड़ान भर किरदारों को गढ़ा तो सामने आया ताज़गी से लबालब नाटक सोहनी महिवाल।
काजल के कई कविता संग्रह और नाटकों को मैंने पढ़ा है उनके लेखन में बेहतरीन शिल्प के साथ साथ स्पष्ट और सुदृढ़ कथानक देखने को मिलता है। क्यूँकि वो एक कवियित्री को भी स्वयं में समेटे हैं इसलिए नाटक में कुछ किरदार जैसे बदरी, गौहर, मुंदरा कभी कभी काव्य रस धार में बहते दिखे। दृश्य संयोजन की रचनात्मकता से कथानक अपनेआप गति पकड़ता प्रतीत होता है। भाषा की सरलता और संवादों की बानगी कहीं बाधक नहीं बनी देश काल परिस्थिति को दर्शाने में। नाटक सोहनी महिवाल हमें दो सदी पहले घटित घटनाक्रम से बिल्कुल सजीवता से जोड़ता प्रतीत होता है।
सोहनी के किरदार को अपने प्रेम के लिए चनाब की हदें रोज़ पार करनी पड़ती थीं। वो हरदिन अपने अस्तित्व के लिए लड़ते पर अपने महिवाल के लिए मुस्कुराते हुए गुज़ारती थी। इसी विरोधाभास में कब उसका नारित्व शक्ति से मिलन कर बैठा भान ही ना हुआ। इस पहलू को शायद पहले के स्थापित साहित्य में इतनी अहमियत ना मिली हो लेकिन काजल के नारी मन ने उसको एक बेहतर तरजीह और तवज्जो दी है।
काजल का प्रकृति प्रेम उनके लेखन में मुखर हो जाता है। मौन प्रकृति अमूक हो सम्वाद करने लगती है। प्रकृति का कोलाहल दृश्यों के पार्श्व में नाटक के किरदारों संग लय बाँध लरजता परिलक्षित होता है और यही उनके लेखन को अलग और मौलिक बनाता है। नाटक सोहनी महिवाल पाठकों के मनोभावों को सपंदित करे इन्ही अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ नाटक नए मानदंड स्थापित करे ऐसी अभिलाषा है। इस पुस्तक की यह समीक्षा लेखिका, मीडियाकर्मी, प्रसारणकर्मी श्रुति पुरी द्वारा की गई है ।