जलियांवाला बाग: 15 मिनट, 1650 गोलियां और हजारों की मौत

jalianwala-bagh-15-minutes-1650-fire-thousand-of-deathनई दिल्ली। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के पावन मौके पर अमृतसर के जलियावाला बाग में हुए नरसंहार का दर्द आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। हर साल जब भी यह दिन यह तारीख आती है तो सभी की आंखें उन लोगों को याद कर नम हो जाती हैं जिन्होंने यहां पर अपनी जान गंवाई। उस दिन जलियावाला बाग में ब्रिटिश राज की ओर से दागी गई गोलियों की गूंज आज भी यहां सुनाई देती है। शहीदों के खून से लाल हुई यह भूमि अब किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है। इस जघन्य हत्याकांड के बाद चर्चिल ने कहा था कि जोन ऑफ आर्क को जला देने के बाद होने वाला यह अमानवीय हत्याकांड ब्रिटिश इतिहास पर एक धब्बा है।

ब्रिटिश सेना के तत्कालीन जनरल डायर ने उस समय इस बर्बर घटना को अंजाम दिया था। भारत को ब्रिटिश राज से आजाद कराने की लड़ाई 200 साल तक चली, लाखों के खून से देश की सरजमीं लाल हुई। लेकिन इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। दीवारों पर लगे गोलियों के निशान आज भी यहां के दर्द के मंजर को बयां करते हैं।

दर्द का मंजर

अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन जलियावाला बाग में लगभग दस हजार लोग इकट्ठा हुए थे। ये लोग इस बात से बिल्कुल बेखबर थे कि जो लोग यहां अपनी आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए जमा हुए हैं, वे यहां से वापस नहीं जाएंगे। ये लोग यहां शांतीपूर्ण तरीके से रोलेट एक्ट के प्रावधानों का विरोध कर रहे थे। विरोध प्रदर्शन के मात्र एक घंटे बाद ही ब्रिगेडियर जनरल डायर अपने 50 गोरखा और 25 बलूची हथियार बंद सैनिको के साथ बाग में घुस आए। वैसे तो इस बाग में घुसने के लिए कई रास्ते है लेकिन वे ज्यादातर बंद ही रहते थे।

15 मिनट, 1650 गोलियां और हजारों की मौत:-

यहां केवल एक ही बड़ा दरवाजा था जहां पर डायर अपनी सेना के साथ खड़ा था। जनरल डायर ने देश की आजादी के लिए शांति से सभा कर रहे निहत्थे हजारों लोगो पर अंधाधुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। 15 मिनट में लगभग 1650 गोलियां दागी गईं। सैनिक गोलियां बरसाते गए और मैदान में मौजूद आदमी, औरतें और बच्चें गोलियों के शिकार होते रहे। वहां मौजूद हजारों लोगों ने ऊंची दीवारों पर चढ़कर बाहर निकलने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। कुछ लोगों के सीने को गोलियों ने छन्नी कर दिया तो कुछ लोगों ने मैदान के कुएं में गिरकर अपनी जान दे दी। क्योंकि उनको सिर झुकाने से सिर कटाना मुनासिब समझा। अंग्रेजी सेना की कार्रवाई के बाद दो दिनों तक इन शहीदों के शव घटना स्थल पर ही पड़े रहे जिसके बाद बाग से 1200 से 1500 लोगों के शव बरामद किये गए, जबकि बाग के कुएं से कम से कम 120 लाशें निकाली गईे। जलियावाला बाग में मरने वालों में मांओं के सीने से चिपके दुधमुंहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आजादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाने को तैयार युवा सभी मौजूद थे। इस घटना में कितने लोग जख्मी हुए और इलाज के दौरान कितनों ने अपना दम तोड़ दिया, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है।

ब्रिटिश इतिहास का काला अध्याय:-

आज भी सिर्फ भारत के इतिहास में ही नहीं बल्कि ब्रिटिश इतिहास में भी इस घटना को काले अक्षरों में लिखा गया है। इस घटना के बाद गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगौर ने ब्रिटिश सरकार की ओर से दी गई नाईटहुड की उपाधि त्याग दी। लेकिन वो कहते है न भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। इस दर्दनाक मंजर को अंजाम देने वाले जनरल डायर का अंजाम भी विनाशकारी था।

निर्दोष लोगों की मौत का बदला:-

डायर की अंत की कहानी लिखने वाले सख्स उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में चल रही बैठक में वक्ता रहे माइकल ओ डायर को उधम सिंह अपनी रिवॉल्वर की गोली का निशाना बना लिया। उधम की दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। डायर की मौत के बाद उधम सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया।

उधम सिंह की कुर्बानी:-

उधम सिंह ने अपनी कुर्बानी देकर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। जलियावाला बाग की दीवारों पर आज भी बहुत ही गहरे गोलियों के निशान हैं वहां एक संग्रहालय भी है, जहां सारे शहीदों के नाम और कुछ निशानियां सहेज कर रखी गई है।

ब्रिटेन की महारानी ने भी दी श्रद्धांजलि:-

आजादी के बाद साल 1961 में जलियावाला बाग में 1919 में हुए गोलीकांड के शहीदों की स्मृति में एक मशाल के रूप में एक स्मारक बनाया गया। जहां पर वर्ष 1997 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ने जलियावाला बाग के शहीदों को पुष्पांजलि दी, लेकिन यह भारतीयों के घावों को नहीं भर सका।

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