बुलंदशहर। न कोई शीश महल है, न कोई ताजमहल है, यादगार-ए-मोहब्बत ये प्यार का महल है।
यह शेर उस शख्स का शबनमी अहसास है जो अपनी मरहूम बीवी की याद में हसीन इबारत गढ़ रहा है। बीवी से किए वायदे के मुताबिक, मोहब्बत का यह अलंबरदार ताजमहल की तर्ज पर मकबरा बनवा रहा है। इसे खूबसूरत, यादगार और मुकम्मल बनाने के लिए उसने अपनी सारी जमा-पूंजी लगा दी है। बुलंदशहर में बनाया जा रहा मकबरा आगरा के ताज की तरह शान-ओ-शौकत से लबरेज तो नहीं है, मगर इसका शहंशाही जज्बा व पाक मोहब्बत शाहजहां और मुमताज की प्रेम गाथा से कुछ कम भी नहीं।
बुलंदशहर के डिबाइ थानाक्षेत्र के गांव कसेर कला में 77 वर्षीय फैजुल हसन कादरी अपनी मरहूम बेगम तजम्मुली की याद में एक एकड़ जमीन में ताजमहलनुमा मकबरे का निर्माण करवा रहे हैं। वह रिटायर्ड सब पोस्ट मास्टर हैं। कादरी साहब का कहना है कि वह मरहूम बीवी से किया गया अपना वादा पूरा कर रहे हैं। 24 दिसंबर 2011 को तजम्मुली का गले में कैंसर के चलते इंतकाल हो गया था।
पुरानी यादों को संजोते हुए कादरी साहब ने बताया कि खुदा ने उन्हें कोई संतान नहीं दी। बावजूद इसके इस मुद्दे पर कभी उन दोनों के बीच कोई खटास नहीं आई। जिंदगी कटती रही और वक्त ने उन्हें बुढ़ापे की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया। डाक्टर ने बताया कि बीवी कैंसर की चपेट में आ चुकी है। एक दिन दोनों साथ बैठे थे। कादरी ने वादा किया कि अगर बेगम की मौत पहले हुई तो वह उनकी याद में अपने खेत के बीचों बीच एक मकबरे का निर्माण कराएंगे। ऐसा मकबरा जिसे देखकर लोग सदियों तक उन्हें याद रखेंगे। कादरी वायदे के पक्के रहे और बेगम के मरने के बाद उन्होंने मकबरा बनवाना शुरू कर दिया। मकबरे का डिजाइन भी उन्होंने ताजमहल की तर्ज पर खुद ही बनाया। फिलहाल उन्होंने इसके निर्माण में अपनी जिंदगी की पूरी कमाई लगभग नौ लाख रुपया खर्च कर दिया है। धनाभाव को देखते हुए उन्होंने पपीते की खेती भी शुरू कर दी है और दिन-रात मजदूरी करते हैं। उन्होंने बीवी की कब्र के बगल में अपनी कब्र के लिए जगह भी छुड़वा दी है। उनका कहना है कि जिंदा रहने तक वह बेगम के मकबरे को ही सजाते और संवारते रहेंगे। जज्बाती लहजे में कादरी ने दो मिसरे गढ़े कि ‘मेरी जिंदगी में या रब ये कैसी शाम आई, न दवा काम आई न दुआ ही काम आई।’