चंडीगढ़ । कुछ लोहा खोटा तो कुछ लोहार। एक तरफ किसान गेहूं व धान के अवशेष खेतों में जलाने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ना चाहते तो दूसरी और कृषि विभाग व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी किसानों की इस प्रवृत्ति को छुड़वाने के लिए संजीदा नहीं दिखते। देखा जाए तो बहुत से ऐसे विकल्प हैं, जिन्हें अपनाकर न केवल पर्यावरण संतुलन बनाए रखा जा सकता है, बल्कि खेतों की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाया जा सकता है।
हम यहां किसानों द्वारा खेतों में गेहूं और धान के अवशेष जलाने की बढ़ती प्रवृत्ति के बारे में बात कर रहे हैं। हरियाणा में हर साल करीब एक करोड़ टन गेहूं व 40 लाख टन धान के अवशेष जला दिए जाते हैं। किसान सिर्फ इसलिए गेहूं व धान के अवशेष खेतों में जलाने को मजबूर हैं, क्योंकि उन्हें अगली फसल के लिए न केवल जल्दी खेत तैयार करने होते हैं, बल्कि उन्हें अवशेष जलाने से अलग कोई विकल्प भी दिखाई नहीं देता।
कृषि वैज्ञानिक डॉ. देवेंद्र चहल के अनुसार गेहूं व धान के अवशेष से भरे एक एकड़ के खेत में पानी भरकर उसमें यदि 15 किलोग्राम यूरिया डाल दी जाए तो थोड़े दिन में ही अवशेष गलकर जमीन में मिल जाएंगे। यह अवशेष खाद बन चुके होंगे। उन्हें जलाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी और अगली फसल के लिए मित्र कीट की संख्या में बढ़ोतरी के साथ खाद की कमी भी पूरी हो जाएगी।
चहल के अनुसार गेहूं व धान के अवशेष से भरे खेतों में पानी भरने के बाद किसानों द्वारा ढैंचा या मूंग की बिजाई की जा सकती है। कुछ दिन बाद जब ढैंचा या मूंग बड़ा हो जाए तो हैरो चलाकर अवशेष खेतों में ही अवशोषित किए जा सकते हैं। इससे खेतों की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी। अवशेष नष्ट हो जाएंगे और अगली बार सिंचाई की जरूरत भी कम होगी।
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष सेवा सिंह आर्य कहते हैं कि कृषि विभाग व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी किसानों को समझाने नहीं आते। उन्हें यदि आसान विकल्प बताए जाएं तो कौन काम नहीं करना चाहेगा, जबकि तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि किसान समय की बचत के लिए अवशेष को खेतों में गलाकर नष्ट करने की बजाय उसे माचिस दिखाना अधिक सरल व फायदेमंद समझते हैं।
हरियाणा किसान आयोग के सचिव डॉ. आरएस दलाल का कहना है कि रोटावेटर और हैपी सीडर मशीनों के इस्तेमाल के जरिये किसान अपने खेतों में अवशेष का निस्तारण कर सकते हैं।