मनरेगा: भ्रष्टाचार का दरिया

Mgnrega, mahatma gandhi national rural employment gurantee actनई दिल्ली। अपने देश में बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन सरकारी योजनाओं और संसाधनों की लूट के तरीके में कोई तब्दीली नहीं आई है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की एक और रिपोर्ट सामने आई है, जो बताती है कि कैसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के तहत गरीबी दूर करने के लिए शुरू की गई योजना को भ्रष्टाचार केखुले खेल का मैदान बना दिया गया। तरीका वही। फर्जी जॉब कार्ड बनवाए गए। कागजों पर काम दिखाया गया। नतीजा भी वही। जो पैसा गरीबों के पेट भरने के लिए आवंटित किया गया, वह भ्रष्टाचारियों की तिजोरी में पहुंच गया।

बहुत थीं उम्मीदें.

-प्रत्येक परिवार को हर साल न्यूनतम 100 दिन का रोजगार दिया जाना था।

-मनरेगा की धारा 16 (3) के अनुसार ग्राम पंचायतों को वार्षिक योजना बनानी थी।

-एक लाख 26 हजार 961 करोड़ की कार्ययोजना मंजूर की गई।

-राज्यों को इस योजना के क्रियान्वयन संबंधी नियम बनाने थे।

-भ्रष्टाचार रोकने के लिए जॉब कार्ड पर लाभार्थी का फोटो लगाना अनिवार्य।

-जॉब कार्ड बनने का मतलब रोजगार की गारंटी।

जो रह गईं अधूरी..

-2009-10 में औसतन 54 दिन का काम मिला, जो 2011-10 में घटकर 43 रह गया।

-11 राज्यों व एक यूटी में 1201 ग्राम पंचायतों ने योजना बनाई ही नहीं।

-सिर्फ 27 हजार 792 करोड़ रुपये की योजनाएं पूरी हो पाईं।

-सात साल बाद भी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान ने नियम नहीं बनाए।

-सात राज्यों में चार लाख से ज्यादा जॉब कार्ड पर फोटो ही नहीं।

-47, 687 मामलों में जॉब कार्ड के बावजूद नहीं मिला रोजगार।

एक से बढ़कर एक नमूने

बलरामपुर जिले में 2,819 स्थानों पर इश्तहार लेखन के लिए एक ठेकेदार को 9.77 लाख रुपये दिए गए। जूनियर इंजीनियर द्वारा प्रमाणन करने पर पाया गया कि केवल 546 स्थानों पर 1.89 लाख रुपये की लागत से इश्तहार लेखन किया गया। हालांकि मामला उजागर होने यह तर्क दिया गया कि समय गुजरने और बारिश के कारण वे इश्तहार धुल गए। वास्तविकता यह है कि इस पूरे मामले में 2,273 स्थानों पर इश्तहार लेखन की बात प्रमाणित नहीं हो सकी। इसके लिए 7.88 लाख के आवंटन में अनियमितता बरती गई।

लखनऊ में 1.50 लाख कैलेंडरों की खरीद के लिए 46.50 लाख रुपये दिए गए। 31 रुपये की दर से इन कैलेंडरों की खरीद प्रक्रिया में अनियमितता बरती गई। सिर्फ यही नहीं वेंडर ने केवल 30 हजार कैलेंडर ही उपलब्ध कराए। इसके लिए 37.20 लाख रुपये अधिक भुगतान किया गया।

सीतापुर जिले के दो ब्लॉकों (मिसरिख और पिसवान) में 860 कामगारों ने इस आधार पर बेरोजगारी भत्ता मांगा कि उनको मई, 2007 से लेकर अक्टूबर, 2007 के बीच लिखित आश्वासन के बावजूद काम नहीं दिया गया। उनके आग्रह को जिला कार्यक्रम कोआर्डिनेटर (डीपीसी) ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि उनको इनके अंतर्गत अन्य स्कीमों में काम दिया गया। इसकेखिलाफ कामगार यूनियन ने कमिश्नर का दरवाजा खटखटाया। इस पर जब कार्रवाई हुई तो डीपीसी ने कहा कि कामगारों को काम दिया गया था,लेकिन उन्होंने करने से इन्कार कर दिया। यद्यपि अपने कथन के समर्थन में वह कोई दस्तावेज प्रस्तुत करने में असफल रहे। लिहाजा कमिश्नर ने डीपीसी को कामगारों को बेरोजगारी भत्ता देने का निर्देश दिया। इस प्रकार इस मद में 14.99 लाख रुपये बेजा खर्च करने पड़े।

उत्तराखंड में मस्टर रोल में अनियमितता

इस तरह के करीब 1,110 मामलों में अनियमितता पाई गई। इनमें से 771 मामलों में ओवर राइटिंग की गई और 510 में मिटाकर लिखने के प्रमाण मिले। इस तरह के परिवर्तनों से इनकी विश्वसनीयता संदिग्ध होती है। 17 अन्य मामलों में जॉब कार्ड नंबर रिकार्ड नहीं किया गया और 2,412 केसों में जॉब कार्ड पर हस्ताक्षर/बाएं अंगूठे का निशान अनुपस्थित था। लिहाजा इससे संबंधित भुगतान संदेह के घेरे में है।

हिमाचल में नाबालिग को रोजगार

511 ऐसे मामले पाए गए जिनमें 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति रजिस्टर पाए गए। जबकि एक्ट के तहत परिवार के केवल वयस्क व्यक्ति को ही रोजगार दिया जाना चाहिए

मध्य प्रदेश में गैर जरूरी खर्च

ऑडिट में सामने आया है कि मजदूरी-सामग्री व्यय के लिए योजना में निर्धारित 60:40 के अनुपात के दिशा-निर्देश का पालन नहीं किया गया। ऑडिट में 13 जिलों की जांच की गई। तीन जिलों (बालाघाट, धार और सतना) में वर्ष 2007-08 में निर्धारित 69.40 करोड़ रुपये से ज्यादा सामग्री पर खर्च हुए। वर्ष 2008-09 में सात जिलों (अशोक नगर, बालाघाट, दतिया, धार, इंदौर, सतना और शाहपुर) में 93.67 करोड़ रुपये, वर्ष 2009-10 में दस जिलों (अशोक नगर, बालाघाट, छिंदवाड़ा, दतिया, धार, इंदौर, सतना, सीहोर, शाहपुर और विदिशा) में 71.68 करोड़ रुपये निर्माण और अन्य सामग्री पर खर्च हुए। वर्ष 2010-11 में छह जिलों बालाघाट, धार, खरगौन, सतना, सीहोर और विदिशा में 63.25 करोड़ और वर्ष 2011-12 में तीन जिलों (बालाघाट और विदिशा) में सामग्री का प्रयोग दिखाया कुल 309.64 करोड़ रुपये खर्च हुए, जिनसे 3.51 करोड़ रोजगार दिवस हो सकते थे। ऑडिट में खुलासा किया गया है कि यह धनराशि सीमेंट-कंक्रीट की सड़कों, कुओं के निर्माण आदि पर खर्च की गई।

झारखंड में घोटाले के आम

झारखंड के गुमला जिले में वर्ष 2007-08 में 10435 एकड़ जमीन पर आम, जट्रोफा और दूसरे फलों के पौधरोपण के लिए 18 गैर सरकारी संगठनों को 24 कार्य आवंटित हुए। इनके मध्य में सफेद मूसली और स्टीविया की खेती होनी थी। कार्य के लिए 13 करोड़ रुपये जारी किए गए। जांच में पाया गया कि स्टीविया और सफेद मूसली की खेती तो की ही नहीं गई।

झारखंड के नियमों में 15000 रुपये तक की सामग्री बिना टेंडर के खरीदी जा सकती थी लेकिन वर्ष 2010 में ग्रामीण विकास विभाग ने 50 हजार रुपये तक की सामग्री की खरीद खुले टेंडर या कोटेशन के माध्यम से करने की अनुमति दे दी। जिला कार्यक्रम समन्वयक ने सामग्री के रेट तय कर तहसील स्तर पर विक्रेताओं की सूची जारी कर दी। ऑडिट टीम ने चार जिलों की जांच में पाया कि 1.95 करोड़ रुपये की खरीद गैर सूचीबद्ध विक्रेताओं से कर ली गई।

पाकुड़ जिले में एक ही एक ही व्यक्ति का 18 जॉब कार्डो पर नाम परिवार के मुखिया या सदस्य के रूप में दर्ज पाया गया है।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) के तहत दो फरवरी,2006 को अस्तित्व में आई इस योजना को पहले 200 जिलों में शुरू किया गया था। एक अप्रैल, 2008 से इसे देश के सभी ग्रामीण जिलों में लागू कर दिया गया। साथ ही इस योजना को चलाने वाले कानून का नाम बदलकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) कर दिया गया।

सोनिया गांधी की इस प्रिय योजना की तुलना इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ योजना के साथ की गई और इसे गेमचेंजर करार दिया गया।

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