नई दिल्ली । संघ की पाठशाला में उम्र भर त्याग, तपस्या, बलिदान, समर्पण और राष्ट्रवाद के पाठ पढ़ने वाले भाजपा के नेता आखिरकार उम्र के एक खास मुकाम पर पहुंचते ही इनसे ठीक उलटी मिसाल क्यों पेश करने लगते हैं? खुद को व्यक्ति पूजा से दूर, सिद्धांत आधारित संगठन बताने वाली इस पार्टी के अंदर कोई भी सत्ता परिवर्तन इसके नेता क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते? लालकृष्ण आडवाणी के ताजा कदम के बाद अब तो यह सवाल भी उठने लगा है कि कहीं पार्टी संगठन के डीएनए में ही तो कोई गड़बड़ी नहीं।
पढ़ें: दिल्ली में लगे आडवाणी के इस्तीफे के पोस्टर
भाजपा में मदन लाल खुराना से लेकर सुंदर सिंह भंडारी, किशन लाल शर्मा, कल्याण सिंह, केशुभाई पटेल और येदियुरप्पा जैसे तमाम ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने-अपने स्तर पर पार्टी को खास ऊंचाई दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन, एक उम्र पर पहुंचने और सत्ता का स्वाद चखने के बाद इनको बदलते भी देर नहीं लगी और ये नेता खुद ही पार्टी के लिए बड़ी मुश्किल बने। इसी तरह राज्यों में हर सत्ता परिवर्तन भाजपा के लिए बेहद कष्टप्रद साबित हुए हैं। कर्नाटक में पांच साल के कार्यकाल में भाजपा ने तीन मुख्यमंत्री बदले। मध्य प्रदेश में उमा भारती हों, उत्तराखंड में बीसी खंडूड़ी या रमेश पोखरियाल निशंक और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह व रामप्रकाश गुप्त, हर बार नेतृत्व परिवर्तन ने भाजपा को चोट पहुंचाई है।
नरेंद्र मोदी से पहले के गुजरात के भी सभी सत्ता हस्तांतरण ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया है। मिशन 2014 से पहले फिर यह दिखने लगा है। 86 वर्ष के हो चुके आडवाणी के इस्तीफे ने उस जोश में सेंध लगा दिया है जिसके सहारे इस बार सत्ता तक पहुंचने की कोशिश हो रही है।