काश! हवा के बजाए जमीं पर होते नेता

27_06_2013-airदेहरादून [दिनेश कुकरेती]। आप बुद्धिजीवी हैं, कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी के आपदा प्रभावित क्षेत्र के दौरे के तमाम राजनीतिक निहितार्थ निकाल सकते हैं। कह सकते हैं कि हर कोई दुखों के पहाड़ पर वोटों की बुनियाद रखना चाहता है। पर मैं आपकी तरह बुद्धिजीवी नहीं, पहाड़ को जिया है, इसलिए उसके ‘टूटने’ का दर्द न चाहते हुए भी महसूस होने लगता है। मैं समझता हूं कि राजनीति के लिए ही सही राहुल ने उन ऊबड़-खाबड़ सड़कों से गुजरकर कहीं न कहीं पहाड़ की पीड़ा जरूर महसूस की होगी। नई दिल्ली की वातानुकूलित कोठी में प्रवेश करते वक्त यह सोचकर उनके कदम जरूर ठिठके होंगे कि वहां पथरीली जमीन ही ओढ़ना और बिछौना है। शायद उनकी समझ में यह बात भी आ गई हो कि जिनका दुख-दर्द बांटने गए थे, उन्हीं से जलालत क्यों झेलनी पड़ी।

क्या यही सोच मेरी उत्तराखंड के ‘हवाबाज’ नेताओं के बारे में हो सकती है। क्या सचमुच उन्हें पहाड़ की पीड़ा का अहसास है। सवाल कचोटे जा रहा कि क्या वह उड़नखटोलों से उजड़े हुए गांवों के ऊपर फिरकियां काटने की जगह चार-छह मील पैदल नहीं चल सकते। रास्ते में फंसने पर लोग उनके प्रति सहानुभूति ही जताते। मरघट जैसा बन चुके केदारनाथ में चैनल वालों के साथ रात गुजारने और फिर कैमरे के आगे घड़ियाली आंसू बहाने से बेहतर तो यह होता कि किसी उजड़े हुए गांव में लोगों को ढाढस बंधाने का दिखावा ही कर लेते। हेलीकॉप्टर में सफारी बैग साथ लिए चैनल वालों के साथ सैर-सपाटा करने के बजाए सौ-दो सौ पैकेट खाने के ही लेकर कुछ लोगों को भूखे दम तोड़ लेने से बचा लेते तो दुआएं ही मिलती। उनकी देखादेखी ही सही, कम से कम अफसरों की आत्मा तो जागती।

आप सोच रहे होंगे कि कुंठित एवं राजद्रोह वाली मानसिकता के कारण मैं मंत्री-विधायक और अफसरों को कोस रहा हूं। लेकिन, यकीन जानिए, मैं जिस भी आपदा पीड़ित से बात करता हूं, वह छूटते ही नेता और अफसरों को गाली देता है। मैं तो इन पीड़ितों के ‘रूखे-सूखे’ शब्दों को ही लयबद्ध कर आपके सामने पेश कर रहा हूं। मेरी सेवती के उदयराम गोस्वामी, जामू के नरेंद्र सिंह रमोला, दीपगांव के रघुवीर सिंह साह, त्रिजुगीनारायण के रघुवर प्रसाद गैरोला आदि से बात हुई, जिसका सार यही है, ‘कि तुम (नेता) कितने अच्छे लगते जब, मुझे (पीड़ित) भी इंसान समझते, तुम कितने अच्छे लगते जब, मेरी विवशता को बांट लेते, और.तुम कितने अच्छे लगते, जब मेरी भी सुनते।’

बताइए, जिन भोले-भाले ग्रामीणों ने खुद आपदा की पीड़ा को सीने में दफन कर घरों से बीज का अन्न भी भंडारे के लिए दे दिया, सरकार और उसका प्रशासन उनके घरों में झांकने तक नहीं गए। विधायक को हेलीकॉप्टर चाहिए, तब जाकर बाहर निकलेंगी, मंत्री महोदय के तो कहने ही क्या। गौरीकुंड निवासी राजेंद्र गोस्वामी व सुरेंद्र गोस्वामी बताते हैं कि पूरे इलाके में एक तरफ मातम पसरा हुआ है और दूसरी तरफ अंधेरा। घरों में जलाने के लिए न मोमबत्ती है, न राहत के दो घूंट पीने के लिए चायपत्ती। जिनके पास जमीन बची न आसमान, उन्हें आटा-चावल से क्या वास्ता। अच्छा तो यह होता कि उनके लिए पहले टेंट का जुगाड़ करते और फिर आटा-चावल का। पर मंत्री-विधायक की आत्मा जीवित हो, तब ना.।

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