आजादी के बाद भी निभाई जा रही अंग्रेजों की परंपरा

images (5)जयपुर [नरेन्द्र शर्मा]। आजादी के 66 साल बाद भी राजस्थान में अंग्रेजों के जमाने की परंपरा निभाई जा रही है। प्रदेश का राजभवन गर्मी के मौसम में हिल स्टेशन माउंट आबू स्थानान्तरित होता है।

राजभवन माउंट आबू जाने को लेकर सवाल उठने लगा है कि अंग्रेजों की इस परिपाटी को आज भी क्यों निभाया जा रहा है? इतिहास के मुताबिक अंग्रेजों के शासन में ईस्ट इंडिया कंपनी ने माउंट आबू को सिरोही के महाराजा से लीज पर लिया था, ताकि इसे राजपूताना रियासत का मुख्यालय बनाया जा सके। कर्नल टॉड एक बार यहां आए तो इस छोटे से हिल स्टेशन की खूबसूरती पर फिदा हो गए। इसके बाद ब्रिटिश वायसराय ने इसे गर्मी की राजधानी घोषित किया। 1947 तक गर्मियों में वे यहां आने लगे। 15 अगस्त,1947 को देश आजाद तो हो गया, लेकिन अंग्रेजों के जमाने की यह परम्परा आज भी कायम है। सरकार के इस कदम से जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों रुपए अतिरिक्त खर्च होते है। राजधानी जयपुर में सुनवाई का एक बड़ा दरवाजा भी महीने भर के लिए बंद हो जाता है। प्रतिवर्ष राजभवन का माउंट आबू यात्रा पर खर्च करीब पचास लाख रुपए होता है। इसका अंदाजा दो साल पहले सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के आधार पर लगाया जा सकता है। इसके मुताबिक तब राजभवन की गाडि़यों की आवाजाही पर ही 4 लाख रुपए का केवल पेट्रोल लगा था। अन्य खर्चो की जानकारी देने से सरकार ने मना कर दिया था।

राज्य के वित्त विभाग से जुड़े एक आला अधिकारी के मुताबिक इस साल राज्यपाल माग्रेट आल्वा मई माह बीस दिन तक माउंट आबू में रही, इस दौरान उनके परिजन और मेहमान भी यहां भ्रमण पर आए, इनके खर्च के साथ ही स्टाफ सहित विभिन्न मामलों पर इस बार करीब तीस लाख रुपए खर्च हुए।

राजभवन माउंट आबू जाने का मतलब, स्टाफ का भी जाना। पिछले वर्षो में 150-200 तक स्टाफ जाता रहा है। हालांकि, इस बार करीब 100 ही है। स्टाफ राजभवन क्वार्टर्स, सर्किट हाउस में ठहरता रहा है। वहीं राज्यपाल के मेहमान निजी होटलों में ठहरते है। इसके साथ ही कई आवश्यक सरकारी दस्तावेज जिन पर राज्यपाल के हस्ताक्षर होना जरूरी होता है उन्हें माउंट आबू तक भेजने के लिए सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को कई बार वहां जाना पड़ता है, इस पर खर्च अलग से होता है। इस साल गर्मी में पांच बार सरकारी दस्तावेज लेकर अधिकारी माउंट आबू गए।

राजस्थान के अधिकांश राज्यपाल माउंट आबू जाते रहे हैं। हालांकि 2002 में तत्कालीन राज्यपाल अंशुमान सिंह नहीं गए। 2010 में तत्कालीन राज्यपाल शिवराज पाटिल आठ दिन के लिए गए। मौजूदा राज्यपाल माग्रेट आल्वा पिछले साल नहीं गई थी।

पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गिरिराज प्रसाद तिवारी ने बताया कि आबू जाना राज्यपाल की मर्जी पर निर्भर है। फिर भी हमें गांधीजी के दिखाए रास्ते का अनुसरण करना चाहिए।

पूर्व विधि मंत्री घनश्याम तिवारी का कहना है कि यह परिपाटी गुलामी वाली मानसिकता और सामंतवादी सोच का प्रतीक है। यह उचित नहीं कि वे गर्मियों में वहां जाए और जनता परेशान हो। पूर्व राज्यपाल अंशुमान सिंह का कहना है कि मै तो इस पद पर रहते हुए माउंट आबू नहीं गया, क्योंकि मुझे यह ठीक नहीं लगा कि लोग अथवा सरकारी अधिकारी काम से इतनी दूर आए। प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने बताया कि जनता गर्मी में रहे और राज्यपाल आबू जाएं, यह ठीक नहीं।

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