मीडिया की लहर ही मुश्किल पैदा कर रही मोदी के लिए

jagdishwar-जगदीश्वर चतुर्वेदी- नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री मीडिया लहर ने बनाया अब यही मीडिया लहर मुश्किलें खड़ी कर रही है। मोदी संभवत: पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका मीडिया ने सबसे जल्दी अलोकप्रियता का भाष्य लिखना आरंभ कर दिया है।
मोदी को मीडिया ने मुखौटों के माध्यमों से आम लोगों के बीच में जनप्रियता दिलाई इसलिए मोदी का मीडिया विवेचन कभी मुखौटों को हटाकर नहीं किया जा सकता। मोदी ने अपनी ऐसी इमेज बनाकर पेश की थी कि वह हर उस व्यक्ति में है जो उसका प्रचारक है इस तरह मोदी ने अपने नायक का निर्माण किया था। सभी निजी व्यक्तियों की इमेज और निजता को अपहृत करके मोदी ‘महान’ की इमेज को मीडिया ने तैयार किया था। निश्चित रुप से यह बेहद खर्चीला,सर्जनात्मक और कलात्मक काम था ।फलत: मोदी व्यक्ति नहीं मुखौटों का संगम है।
मोदी को देखने का हम नज़रिया बदलें मोदी पहले भी बहुत गरजते थे, अब भी गरज रहे हैं, पहले भी वे मुखौटों के ज़रिए गरज रहे थे, अब भी मुखौटों के ज़रिए गरज रहे हैं, मोदी को निजी तौर पर प्रधानमंत्री के रुप में देखना, अंश को देखना है, मोदी समग्रता में सिर्फ़ मुखौटों में मिलेगा, निचले स्तर पर सभी संघी सदस्यों और हमदर्दों में मिलेगा। मोदी का मुखौटों के बिना अर्थ न पहले समझ सकते थे और न उनके पीएम बनने के बाद ही समझ सकते हैं। मोदी यदि संघ के साधारण सदस्य की मेहनत के फल के मालिक हैं तो वही मोदी निचले स्तर साधारण संघी सदस्य की दबंगई के पाप के भी मालिक हैं यह नहीं होसकता कि नेता को कार्यकर्ता के अच्छे काम फलें और बुरे असर ही न करें।
वर्चुअल इमेजों ने मोदी की रचना जिस रसायन से की है उस रसायन में ही उसका विलोम भी अंतर्निहित है। संयोग की बात है कि वर्चुअल इमेज में विलोम भी उसी मार्ग से बनता है उन्हीं लोगों से बनता है जो इमेज के सर्जक हैं।
मोदी की वर्चुअल इमेजरी के बनते विलोम को पूर्णता प्राप्त करने में कितना वक़्त लगेगा यह तय करना मुश्किल है लेकिन यह तय है कि मोदी इमेज विध्वंस की वर्चुअल प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। न्यायपालिका के शिखर से इमेज भंजन का सूत्रपात हुआ है। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश की नियुक्ति पर सरकार ने जिस तरह हस्तक्षेप किया उसने मोदी की इमेज पर कलंक का अमिट दाग छोड़ दिया है।
वर्चुअल विचारधारा हमेशा व्यक्ति को छोड़ देती है इमेज को पकड़ लेती है और इमेज के ज़र्रे ज़र्रे पर हमले करती है। वर्चुअल इमेज में व्यक्ति गौण होता है और उसकी इमेज मूल्यवान होती है और उसके रेशे- रेशे को तोड़ना पेचीदा काम है अत : यह काम भी मीडिया उतनी ही बेरहमी से करता है जितनी एकाग्रता से वह इमेज बनाता है। रीगन से बुश तक की इमेज के विध्वंस को देखें तो यह चीज़ सहज ही समझ में आ सकती है।
इमेज का क्षय वस्तुत: उस आभामंडल को नष्ट करता है जो आभामंडल वर्चुअल ने निर्मित किया है । इससे व्यक्ति की सक्रियता बढ़ती है और इमेज की घटती है।
मनमोहन इमेज के साथ यही हुआ लेकिन बेहद धीमी गति से। क्योंकि मनमोहन सिंह की वर्चुअल इमेज अदृश्य रंगों से बनायी गयी थी फलत: उस इमेज को नष्ट करने में ज़्यादा समय लगा।
इसके विपरीत मोदी की इमेज मुखौटों और हाइस्पीड मीडिया के जरिए बनी है अत:इमेज विखंडन भी हाइस्पीड और मुखौटों के ज़रिए होगा। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें इन दिनों मीडिया में मुखौटा लीला चल रही है। मोदी के मुखौटों की वर्चुअल धुलाई हो रही है ।
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