मर हम गए!

अश्वनी कुमार
अश्वनी कुमार

जब दर्द हद से बढ़ गया, तब मर हम गए.

मरहम कहीं जब न मिला, तब मर हम गए.

भोर शब होने लगी बसमें नहीं कुछ भी.

जब हर कोई गुम हो चला, तब मर हम गए.

कोई बचा न हम कदम, कोई भी मुहब्बत.

ये दिल बहुत सहता रहा, तब मर हम गए.

होते रहे तब्दील हम दर्दों की अंजुमों से

साहिल का फिर भी न पता, तब मर हम गए.

हो रही थी हर कहीं मुहब्बतें बरखा.

दिल रह गया सूखा खड़ा, तब मर हम गए.

हमें कुछ लोग कहते हैं

हमें कुछ लोग कहते हैं, के हम परेशानी में रहते हैं.

उन्हें कैसे बताएं हम, के वीरानी में रहते हैं.

जगा दे रूह को जो वो तो आहट होती ही रहती.

मगर हम हैं जुदा, ओनु ही रवानी में रहते हैं.

कहीं पर बाढ़ है, धरती कहीं खिसकने लगी है.

यहाँ पर लोग सभी, दुखों की सानी में रहते हैं.

कहीं कुछ होता रहे, अपने में ही मग्न जो रहें.

यही बचपन (बच्चे) हैं, जो यादें सयानी में रहते हैं.

बुढ़ापा चढ़ गया, हर ओर बदहाली के बादल हैं.

मगर कुछ लोग अब भी अपनी जवानी में रहते हैं.

सुने किस्से बहुत हमने वो लैला और मजनू के.

है ज़िंदा इश्क अब भी, या फिर हम कहानी में रहते हैं.

के ‘आशू’ रोक न पाया अश्कों को बहने से.

जब से सूना है उसने, लोग दलाली में रहते हैं.

-अश्वनी कुमार

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