सरकारी स्कूलों में शौचालय

-अश्वनी कुमार- सरकारी स्कूलों में अगर लड़कियों के लिए अलग से शौचालयों की बात करें तो हम देखते हैं कि पिछले कई सालों से यह मुद्दा कई बार सामने तो आ रहा है. पर इसपर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा रहा है. सरकार और स्कूली प्रशासन कुछ भी करने में असमर्थ हैं. और अपनी असमर्थता वह दोनों ही एक दूसरे पर डाल रहे हैं. कई दिनों पहले मेरे एक सरकारी स्कूल में का करने वाले मित्र ने मुझे बताया कि स्कूल में पढने वाली बच्चियों की शिकायत आने के बाद भी वहां की प्रिंसिपल कुछ नहीं कर रही है. उसका कहना है कि सरकार से पैसा नहीं मिला तो हम क्या अपनी जेब से इसे सही करें. साफ़ सफाई की व्यवस्था के हर स्कूल में एक सरकारी कर्मचारी है फिर भी इन शौचालयों की दशा इतनी ख़राब है. अपने आप में एक बड़ा प्रश्न है. दूसरी ओर सरकार दुहाई दे रही है कि इसपर काम तेज़ी से किया जा रहा है. फिर हमें क्यों नहीं दिखता भाई…?

अश्वनी कुमार
अश्वनी कुमार

देश की मीडिया इस मुद्दे को स्वच्छ भारत अभियान से जोड़कर अपनी रोटियाँ सेंकने में लगी है. जबकि यह मुद्दा प्रथक्क है. राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय और सरकार कह रही है कि देश के कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से सिर्फ 1,01,443 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है. आंकड़ा देखकर यकीं नहीं होता मुझे तो लगता है किसी भी स्कूल में कोई व्यवस्था नहीं है. वहीँ अगर निजी स्कूलों से इसकी तुलना करें तो बात पलटकर उलटी हो जाती है. फिर सरकार कुछ ओर ही कहने लगती है. वहीँ सरकार का यह भी कहना है कि 87,984 स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय काम नहीं कर रहे है. अब एक शोध करके देखते हैं क्या निकलता है. हम यह देखते हैं कि जिन स्कूलों में शौचालय नहीं है और काम नहीं कर रहे है उन दोनों के आंकड़ो को मिला दें तो आंकड़ा 189427 हो जाता है, जो कि कुल सरकारी स्कूलों का लगभग 17.30 फीसदी है. अंदाजा लगा लीजिये आंकड़े क्या कह रहे हैं.

इसी वर्ष के आरम्भ यानी जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कुछ आंकड़े जरी करके बताया कि 2009-10 में 41 फीसदी सरकारी स्कूलों में बच्चियों (लड़कियों) के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं थी, परन्तु इस आंकडे में 2012-13 में गिरावट आई और यह मात्र 31 फीसदी रह गई. इसके साथ ही 2013-14 में 17.30 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है और शौचालय काम नहीं कर रहे हैं. जिसे हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ने कभी 19 फीसदी बताया था.

यहाँ सवाल यह उठता है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो मात्र एक साल के अंतराल में 2013-14 में इसमें ऐसी कौन सी गिरावट आई जो यह घटकर 17.30 फीसदी ही बचा. आखिर यह हुआ कैसे जबकि 2010 से 2012 के बीच इसमें सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी. जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट. परन्तु यहाँ तो हम कुछ और ही देख रहे हैं. इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है. और इसकी प्रमाणिकता पर तो कब से सवालिया निशान हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इसी रिपोर्ट में यह भी आंकड़े दिए गए हैं कि दिल्ली के सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की समुचित व्यवस्था है. और यह सभी ठीक से काम भी कर रहे हैं. जबकि अंग्रेजी के प्रख्यात समाचार पत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट कुछ ओर ही बयान करती है. अगर दोनों के आंकड़ों की तुलना करें तो कुछ तो गड़बड़ है ऐसा प्रतीत होता है.

अगर हम देश के एक बड़े और काफी बड़े राज्य जहां हमेशा राजनैतिक सरगर्मियां अपने चरम पर होती हैं. यानी उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहाँ कुल 160763 सरकारी स्कूल हैं, इसमें से लगभग 1.46 फीसदी यानि 2355 विद्यालयों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है,. इसके साथ ही लगभग 2.91 फीसदी यानी 4634 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय काम नहीं कर रहे है. साल 2014 के प्रथम संस्थान के सेंटर “असर” (एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के सर्वे के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयों में 2013 में 80 फीसद स्कूलों में पेयजल की सुविधा हो चुकी है, 79.9 फीसद स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय पाया गया. इसके बाद भी दुर्भाग्य की स्थिति रही कि मात्र 44 फीसद स्कूलों में ही शौचालय उपयोग करने के योग्य मिले. प्रथम की रिपोर्ट के मुताबिक 20 फीसदी विद्यालयों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के मुताबिक सिर्फ 1.46 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है. यह भी कहा जा सकता है कि असर के सर्वे में सरकारी और निजी दोनों स्कूलों शामिल है, लेकिन तब भी असर और राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों में काफी अंतर दिखता है. दो संस्थानों के अध्ययनों में 1-2 फीसदी अंतर तो हो सकता है, लेकिन यहां अंतर 18 फीसदी है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ आंकड़ो का खेल है. और कुछ नहीं. हम केवल इसमें एक भूलभुलैया की भाँती जा तो सकते हैं परन्तु निकलने का रास्ता तो मिलना बहुत ही मुश्किल है. चाहते तो हम हैं इसके आस पास जाना इन्हें पकड़ना परन्तु केवल इसके फेर में फंस कर रह जाते हैं.

कुछ दूसरे राज्यों का भी यही हाल है. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि सभी लोग आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी सुविधानुसार करते हैं. सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी उपलब्धियां बताती है, तो वहीं एक पत्रकार उन्हीं आंकड़ों से सरकार की उपलब्धियों की पोल खोल सकता है. सारा मामला यह है कि हम किस तरह से आंकड़ों को प्रस्तुत करते है. आंकड़ों का स्वयं में कोई महत्व नहीं है. अहम बात यह है कि हम आंकड़ों को किसलिए और किस तरह से तैयार कर रहे है. आंकड़ों के जरिए हम क्या बताना चाहते है? यह कुछ बताना भी चाहता हैं या लोगों को फंसाना चाहते हैं. जो भी हो एक आम आदमी के बस की बात नहीं है कि इन आंकड़ों को समझ सके, क्योंकि यह इतने जटिल है कि कुछ संबंधित लोग ही इन्हें समझ सकते हैं. बाकि हम और आप तो सरकार के सताए हुए हैं ही. इसे समझ कर करेंगे भी क्या.

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