मूल: ‘रविन्द्रनाथ टैगोर’
छुट्टियों में रोज़- रोज़
पानी में बहाता हूँ
एक कागज़ की कश्ती
मोटे अक्षरों में अपना नाम पता
सब लिखकर,
ताकि कोई किसी दिन मुझे पहचान लेगा,
ढूंढ निकलेगा
कि मैं कौन से देश का हूँ !
सिन्धी अनुवाद: देवी नागरानी
हिक कागर जी कश्ती मोकलुन में रोज़ रोज़
पाणीअ में वहाईंदो आहियाँ हिक कागर जी कश्ती थुल्हन अखरन में पाहिंजों नालो, डसु पतो
सब लिखी करे जींअ कोई त कहिं डींहु मुखे सुञांणी वेंदो
गोल्हे कढंदों
त माँ कहिड़े देश जो आहियाँ !
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