. खबर का मूल प्लाट , बुधवार उच्चतम – न्यायालय द्वारा, चिता जलाए जाने पर ग्रीनटेक्नोलाजीे के स्तेमाल पर जोर दिये जाने पर आधारित है। यह सही है कि, हमें – आधुनिकता की दौड़ में अपने रीति रिवाजों और – नीयम कायदों मै बदलाव की ज्यादा जरूरत लगती है।
हम यह भी सही मान लेते हैंकि, 5 करोड़ से ज्यादा पेड़ हर साल केवल शवों की अंत्येष्टी के लिए काटे जाते हैं। 22 क्विन्टल लकड़ी प्रति वर्ष दाह – संस्कारों की भैंट चढ जाती है। और यह कटाई रुक नहीं रही। इसीसे विद्युत शवदाह गृह की उपयोगिता पर जोर दिया गया है। खबर ही मे यह भी कहा गया कि,
नदियां साफ रहेंगी। यह मानते स्वीकारा भी है, कि –
अस्थियों से नदियाँ प्रदूषित नहीं होतीं।लेकिन अधजले शवों से बैक्टीरिया पनपते है।
आगे कहा, राज्यों में शवदाह गृह हैं, लेकिन स्तेमाल नहीं होते। ताज से 300 मीटर दूर बने श्मशान स्थल से एतिहासिक ईमारत की रंगत खत्म होनै लगी हे। आदि आदि कई बातों पर तर्क रखे गये है। यह तो हुई मूल खबर की बात।
किन्तु हैडलाइन्स को लेकर जो बात – विचारणीय है, वो यह कि, क्या सभ्य समाज के लोग
अपने पुरखों ,वृद्ध हूए माता-पिता, गुरूजनों कै प्रति दुनिया छोडने पर. “मुंर्दे” शब्द का स्तेमाल कर सिद्ध क्या करना चाहते है ? जो जीव दुनिया में आया है, उसे
एक ना एक दिन जाना ही है। फिर गये हुए लोगों के – लिए ऐसी बेरुखी या अपमानित किए जाने जैसे – शब्दोंके चयन में लापरवाही का हक हमें कहाँ से मिल गया ?
विचारणीय बिन्दु तो यह भी है कि, नदियों में जो बैक्टीरिया अथवा मैल पनपने की बात है, वो –
अधिकांशत: उन उद्योगों का कचरा या कैमिकल्स हैं जो नदियों के आस पास बसे है, वो ही ज्यादा – जिम्मेदार है। इस पर विचारकों का ध्यान बहुत कम गया है ? देश भर मे प्रदूषण को लेकर अब तक जो हो हल्ला खड़ा किया जाता रहा है,उससे सभी वाकिफ है।
पिछले दिनों माननीय मोदीश्री द्वारा ‘पवित्र गंगा’ की सफाई का मुद्दा उठाया था वो प्रचारित तो खूब हुआ –
लेकिन डेढ साल में वही ‘ढाक के तीन पात’ नजर आ पाए। यानी कुछ पता ही नहीं चल रहा ! बजट भी मिला पर…। अब रही जंगलों के कटने की बात तो क्या उस विभाग को भ्रष्टाचार मुक्त मान लिया गया, जो जंगल अथवा पेडों की अंधाधुन्ध कटाई , व देखरेख के लिए – जिम्मेदार माना जाता है?
मेरा अपना यह भी मानना है कि, सैंकड़ों पेडों की कटाई निंर्वाद रूप से आज भी जारी है। जैसे उन क्षेत्रों के आस पास बसै ग्रामीण जन इन जंगलात के कारिन्दों की मेहरबानी से काट कर ले जाते रहे है।
अब ये मेहरबानी यूँ ही तो हर दिन होने से रही! समझ मे सबके आता है लेकिन प्रधानमंत्री जी की तरह मौन
रहने मैं ही भला समझते है।
बहरहाल ज्यादा लम्बा लिखने या बहस के लिए देश व प्रदेश मे कई मंच है।मेरा आशय किसी को
बेवजह इसमें घसीटना कतई नही है।
कहना मैं यह चाहता हूँ कि, ऋषी मुनियों, भगवद् अवतारो और वेद पुराण, उपनिषदों वाली इस “पावनधरा” पर आजकल सोचविचार और.रहन सहन का सलीका ही बदल गया है। एक ओर हम दिवगंत आत्माओं को पुष्प चढातै है ,आदर.भाव से.उनके विचारो का अनुसरण करने के ढोल पीटते हैं, ओर हम दूसरी ओर लोग है कि, पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते थकते नही, वहीं नई पीढी़ अपने ही हाल मैं – व्यस्त रह गई है। सवाल यह है कि, क्या ये खबर की हैडलाईन्स आपको.रास आती है। जिसमें कह दिया कि, ” मुर्दे जंगल खाते है ?” बस विरोध यहीं दर्ज होता है ! दुनिया छोड़ गई जमात के प्रति सड़क छाप शब्दों की ऐसी प्रस्तुती क्या पसन्द आई है आपको ? आपके उद् बोधन में शब्दों का चयन यदि कृतज्ञता से परिपूर्ण हो तो नाम चमका सकता है आपका। यही सच है।
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