पहले के नेता कहते थे “स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे लेकर रहेंगे।”आजकल नेता कहते हैं, “गाली देना हमारा सत्ता-सिद्ध अधिकार है, इसे देकर रहेंगे।” पहले नारे लगाकर आजादी मांगी जाती थी, अब नारे दिखाकर आजादी दर्शाई जाती है। स्वतंत्रता के लिए लाठियाँ खाई जाती थीं, अब चलाई जातीं हैं। अधिकार कोई भी हो, संघर्ष मांगता है, समर्पण मांगता है। गाली देने के इस अधिकार को हमारे नेताओ ने बड़ी मेहनत से प्राप्त किया है। पता नहीं किस-किस की जूती पर नाक रगड़ी, झूठ, छल ,कपट प्रपंच सरीखे गुणों को आत्मसात किया, तब जाकर कही ये सत्ता-सिद्ध अधिकार मिला।
वैसे भी राजनेता इन दिनों गलियो में नहीं, गालियों की गोद में पल- बड कर बड़े होते हैं। राजनीती उन्हें नाम से ज्यादा बदनाम से पहचानती है। जनता उन्हें काम से ज्यादा, कारनामो से जानती है। जिंदगी की राह में कदम-कदम पर गालियो से स्वागत होता है। इसलिए ये गालियो का बुरा नहीं मानते। पुरस्कार की तरह ग्रहण करतेे है, प्रसाद की तरह लौटा देते हैं। जनता इन्हें देती है, ये जनता को देते हैं। जितना लेते है, उससे ज्यादा लौटा देते है। इससे न केवल दोनों जुड़े रहते हैं बल्कि एक दूसरे के परिवारों में भी पूरा दखल रखते हैं। अतः गाली देने के अपने सत्ता-सिद्ध अधिकार का प्रयोग जन -हित में, जनता के लिए, जनता पर, पूरी शिद्दत से करते हैं। जब जनता बोर होने लगती है तो फिर आपस में रियाज करते दिखते है। इस स्थिति में और भी ज्यादा मजा आता है। निम्न से निम्न गाली को ऊँचे से ऊँचे स्वर में ऐसे लड़ाते हैं, मानों पतंग के पेच लड़ रहे हो। जनता पतंग की ही तरह उन गालियों को लूटकर अपना दमखम दिखाती है और आपस में एक दूसरे को गालियाँ देकर अपने पेच लड़ाने लगती है।
जैसे-जैसे लोकतंत्र परिपक्कव हुआ, वैसेे-वैसे गाली देने का ये अधिकार अधिक पुख्ता और सुदृढ़ हुआ है। कभी गालियों को असंसदीय माना जाता था, परन्तु सांसदों की कड़ी मेहनत से इन्हें भी संसदीय दर्जा मिल गया है। इधर सरकारी कामकाज में पारदर्शिता आने से गालियों की गोपनीयता समाप्त हुयी है। पहले देने वाले को पीठ पीछे दी जाती थीं और वह भी उसी अंदाज में पीछे-पीछे लौटा देते थे। लेकिन अब सब कुछ आमने-सामने होता है। जनता मुँह पर गाली देती है, नेता मुँह से गाली देता है। दोनों अपनी-अपनी हैसियत का ख्याल रखते हैं। नेता का दर्जा ऊँचा होता है, जनता का नीचा। अतः नेताजी जनता को नीच समझ कर नीचता वाली गालियां देते हैं और जनता नेताजी को ऊंचा मानकर ऊंचा-ऊंचा छोड़ती है।
जब तक गालियां सत्ता-सिद्ध अधिकार नहीं मानी जाती थीं तब तक नेताओ की निजी रूचि इनमे कम ही नजर आती थी। प्रर्याप्त प्रचार- प्रसार नहीं मिलता था। जनता अबोध थी। ना भाषा समझती थी, ना लहजा। अखबार के पास गाली लिखने का सलीका नहीं था, चैनल के पास दिखाने का साहस नहीं था। इसलिए गाली देने से कोई फ़ायदा नजर नहीं आता था। लेकिन समय बदला। अधिकारों की सूची में एक नया अधिकार जुड़ा। बचपन में सीखी गालियों के दिन जवान हुये। सूचना-क्रांति के तूफ़ान ने घर बैठे-बैठे घर-घर पहुँचने का नुस्खा दे दिया। अखबार और चैनल भी गालियों के प्रसार में ऐसे कूदे कि आपस में एक-दूसरे को गालियों से पछाड़ने लगे। गालियों का ये महिमामंडन देखकर ही देश में इस अधिकार को बड़ा सम्मान मिला कि गाली देना हमारा सत्ता-सिद्ध अधिकार है।
चुनाव के मौसम या मौसम बनाने के लिये गालियों की बौछार बड़ी उपयोगी है। इस दौरान गालियों के नए नए संस्करण या फिर बिलकुल ताज़ी गालियां भी ईजाद होती हैं। कभी-कभी तो बिना संज्ञा, सर्वनाम की गालियां भी प्रचलन में आती हैं। भाव-भंगिमाओं को गालियों में अनूदित करने के लिये ये मौसम बड़ा ही मुफीद होता है। पिछले चुनावों में तो राजा और युवराज जैसे सम्मानित सम्बोधन भी गालियों के रूप में गाये गए। चुनावों में शादी ही की तरह गालियां दी नहीं जाती, गाईं जाती हैं क्योकि वहाँ भी गठबंधन के मजे और मजबूरी साथ-साथ रहते हैं।
कुल मिलाकर गाली का महत्व ओर् महत्ता के चलते भारतीय समाज के साथ- साथ राजनीती का भी चहुमुखी विकास हुआ है।चौराहे से लेकर चैनल तक ऐसे लाइव शो बड़े हिट जा रहे हैं। हर राजनैतिक दल अपने अस्तित्व के लिये पार्टी में प्रवेश का पैमाना, टिकट पाने की पात्रता, जीतने की शर्त, मंत्री बनने की योग्यता यही रख रहा है कि आपने कब -कब, किस-किस को, कौन-कौन सी, गालियां कितनी जोर से दी है। हर विधायक, सांसद, मंत्री ,पार्षद ,पदाधिकारी , पार्टी में पद पाने की होड़ में, जनता से जुड़ने के लिये, गालियों की गलियों में विचर रहा है क्योकि उसको पता है ,”गाली देना हमारा सत्ता-सिद्ध अधिकार है।”
रास बिहारी गौड़
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