नारी शक्ति और वेदना की अभिव्यक्ति : दूजो छैड़ो

मोहन थानवी, बीकानेर
कवि- कथाकार नवनीत पांडे के दूसरे राजस्थानी उपन्यास ‘दूजो छैड़ो’ और पहले उपन्यास ‘माटी जूण’ के प्रकाशन में 14 वर्ष का लंबा अंतराल है। इस अंतराल में जमाना बदला, वहीं उपन्यासों के कलेवर भी प्रभावित हुए हैं। उपन्यासकार ने अपने इस नए उपन्यास में नए कलेवर को अलग अंदाज से पाठकों के सम्मुख रखा है। उपन्यास में आधुनिक युग की नारी-शक्ति और उसके अंतरमन में फैले-पसरे अंर्तद्वन्द्व की समयानुकूल व्यथा-कथा बताती डा. मुळक सिंह कलेक्टर का अभिनंदन का प्रथम दृश्य और पहला पैराग्राफ ही जिज्ञासा उत्पन्न करता है, नारी-शक्ति री महिमा गाई जाएगी या यादों का सैलाब उमड़ेगा। शक्ति की वेदना जैसे जैसे हम पाठ में उतरते हैं चेहरों से झांकने लगती है।
aqua-y2-pro_20161007_073054समृद्ध राजस्थानी-हिंदी उपन्यास लेखन का एक वृहद इतिहास रहा है। नवनीत पांडे के इस उपन्यास पर उनके पूर्ववर्ती राजस्थानी उपन्यासकारों के लेखन, कथानक, पात्रों का असर हो, ऐसा इंगित नहीं होता। हां, दूजो छैड़ो पढ़ते समय यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ के सामंतकाल के कथानक और उनके नारी-पात्रों का स्मरण यकबयक हो आता है। अपनी अलहदा और विशेष लेखन शैली वाले नवनीत पाण्डे को बीकानेर में श्रीयुत श्रीलाल नथमल जोशी, यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, अन्नाराम ‘सुदामा’, देवदास रांकावत आदि का सान्निध्य प्राप्त हुआ और ये वे हस्ताक्षर हैं जो हिंदी-राजस्थानी उपन्यास विधा के लिए सदैव चमकते नक्षत्र रहेंगे। नवनीत पांडे ने अपने उपन्यास की नायिका को अपनी जिन्दगी के उन पलों को सुनाते हुए उकेरा है, जो तत्कालीन समाज और वर्तमान (कथानक में) का वर्णन स्वतः ही करने में सक्षम हैं। कथा सुनाने-सुनने की लोकजीवन की सुदीर्घ परंपरा का निर्वहन यहां बखूबी सामने आता है। नायिका प्रधान राजस्थानी उपन्यासों में ही नहीं वरन समग्र राजस्थानी उपन्यासों में आपबीती को क्रमबद्ध श्रवण करवाने की ऐसी शैली इस अंदाज में नए रूप में इस्तेमाल हुई है।
उपन्यास अपने कथानक और अविस्मरणीय चरित्रों के संवादों-घटनाओं को उकेरते हुए ज्यों-ज्यों चरम की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों वर्णित की जा रही कथा में दूसरा छोर पाठकों की पकड़ में आ जाता है। यही खूबी नवनीत पांडे को अन्य उपन्यासकारो से अलहदा मुकाम देती है। मुळक अपनी बाल्यावस्था में जिस नायिका को अपने समय और समाज का साक्षी बनाती है। वह कहती है- सभी लड़कियां तो पढ़ने जाती हैं, मैं ही स्कूल क्यों नहीं जाती? साक्षर होते समाज की व्यवस्था में बालिका शिक्षा की अनदेखी को यहां उपन्यासकार बखूबी उकेर कर सफल रहे हैं। उपन्यास के समापन से पूर्व नायिका के रूप में कलेक्टर मुळक अपने दफ्तर-परिसर में विक्षिप्तावस्था में भटक रही किशोरावस्था की सखी कुसुम को देखकर सहयोगी सेवाकर्मी से कहती है- इस पागल को मेरे निवास पर भिजवा दो। हालांकि उपन्यासों में ऐसे दृश्य कमोबेश इसी अंदाज में पढ़े जा चुके हैं, लेकिन उन दृश्यों को संवेदना और अपनत्व प्रदर्शन में इतना प्रभावी अंकन यहां मिलता है। कुसुम नायिका को पीहर और ससुराल दोनों में लड़की या बहू की बेकदरी का वृतांत इस तरह सुनाती है कि कन्या संरक्षण की भावना स्वतः ही पाठकों के मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगती है। उपन्यास ‘दूजो छैड़ो’ में बालिका शिक्षा, नारी-जागरूकता, रुढ़ियों के खिलाफ मुट्ठियां तानने का आह्वान सहित बहुआयामी संदेश को निहित किए सफल उपन्यास है।

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