इंडिया टुडे से: चौखट से झांकता सेक्युलर हिंदुत्व

babriकांग्रेस महासचिव दिगिवजय सिंह ने पिछले हफ्ते अपनी एक फोटो फेसबुक पर शेयर की. उन्होंने बड़े गर्व से लिखा कि मैं मिट्टी के शंकरजी बना रहा हूं और पांच करोड़ शिवलिंग बनाने के अनुष्ठान में शामिल हुआ हूं. कांग्रेस में खड़ी बात करने वाले दूसरे प्रवक्ता मनीष तिवारी जब टीवी पर टिप्पणी देते हैं तो उनके पीछे गणेशजी की बड़ी सुंदर सी पेंटिंग टंगी दिखती है.

इंडोनेशिया का विमान हाल ही जब गायब हुआ तो सुप्रीम कोर्ट के बड़े तार्किक वकील और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने रहस्यवादी ट्वीट किया, ‘पता नहीं ये विमान कहां चले जाते हैं, प्रकृति के रहस्य को कोई नहीं समझ सकता.’ आजम खान के कोटे से समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद मुनव्वर सलीम का टीवी पर बयान चल रहा है, ‘राम मंदिर हिंदुस्तान में नहीं बनेगा तो कहां बनेगा.’ इसके अलावा सेक्युलर जगत में बिसराई गईं सरदार पटेल, स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस जैसी शख्सियत अचानक कांग्रेस के ट्विटर एकाउंट पर धड़ाधड़ दिखने लगी हैं.

क्या यह राजनीति का बदला चेहरा है या कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दलों को भी अब अहसास हो गया है कि उनके ‘सेक्युलरवाद’ के संवैधानिक नारे को नरेंद्र मोदी की बुलंद आवाज ने बड़े आराम से ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के पर्याय के तौर पर जनमानस में स्थापित कर दिया है. अब यह इन दलों की जिम्मेदारी है कि वे लोकमानस में खुद को फिर से सबकी पार्टी के तौर पर स्थापित करें. लेकिन जिस तरह से पलड़ा एक तरफ झुक गया है उसको संतुलित करने के लिए इन पार्टियों को थोड़ा हिंदूवादी या कर्मकांडी हिंदू दिखने की जरूरत पड़ रही है.

सेक्युलर हिंदुत्व की परिभाषा
इसी असंतुलन के बिंदु पर ‘सेक्युलर हिंदुत्व’ का पंछी पर खोलने लगता है. सेकुलर हिंदुत्व का मतलब हुआ कि नेता अपने रंग-ढंग से यह दिखाने की कोशिश करता रहेगा कि वह पूरी तरह हिंदू है, बस वह किसी अल्पसंख्यक समुदाय का दुश्मन नहीं है. वह मुसलमानों का दुश्मन नहीं है, लेकिन उसे मुस्लिम परस्त न माना जाए.

दरअसल, यही वह अघोषित परंपरा है जिस पर देश महात्मा गांधी के उदय के बाद से ही चलता रहा है. इसी परंपरा में अल्पसंख्यक सबसे ज्यादा महफूज रहे हैं. जरा याद कीजिए कि महात्मा गांधी ने खुद को वैष्णव जन मानने में, हाथ में गीता लेने में और ईश्वर पर अटूट विश्वास जाहिर करने में कभी गुरेज नहीं किया. आधुनिक सेक्युलरवाद के सांचे में न समाने वाली पाप-पुण्य की अवधारणा को बापू ने हमेशा अपने राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया. खुद को पूरे देश का नेता बनाने से पहले उन्होंने खुद को हिंदुओं का नेता बनने दिया. अगर ऐसा नहीं था तो मुसलमानों को जोडने के लिए खिलाफत आंदोलन से अलग से जुडने की उन्हें जरूरत नहीं पड़ती.

आज तक से साभार 

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