राजेश टंडनहर शहर के पास से बाईपास निकलता है और ग्रामीण क्षेत्र की पुलिस का हलका होता है। राष्ट्रीय राजमार्गों पर जगह-जगह ढाबे, होटलें, चाय-पानी की दुकानें, पैट्रोल पम्प, टायर पंक्चर तथा मिस्त्रियों की दुकानें खाने की होटलों के बाहर पान की दुकानें, सी.डी. की दुकानें वगैरह-वगैरह होते हैं। कुछ ढाबों को खास तौर पर ट्रकों वाले, टैंकरों वाले और ट्रोलों वाले रूकते हैं तथा विश्राम करकेअपने गन्तव्य की ओर जाते हैं। इन ढाबों पर संगठित अपराध होते हैं जैसे – टैंकरों से दूध चोरी करना, डीजल व पैट्रोल चोरी करना, कैमिकल चोरी करना, साबुन का लिक्विड चोरी करना, गैस चोरी करना, डामर चोरी करना और अपराध जगत से जुड़े वो सारे काम करना जो अपराध की श्रेणी में आते हैं।इसके अलावा शराब तस्करी में लिप्त ट्रकों, टैंकरों का एक अलग विज्ञान है इसके साथ ही डोडा पोस्त की तस्करी और मादक पदार्थों की तस्करी जिसमें अफीम, चरस, हीरोइन, गांजा व अन्य नशीले पदार्थ शामिल हैं। देह व्यापार जिनको रैड लाईट एरिया कहा जाता है वे भी इन राष्ट्रीय राजमार्गों पर अपने ग्राहकों को सुख सुविधा उपलब्ध कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। आजकल तो यहां तक हो गया है कि वैश्यावृति में लिप्त महिलाएं सड़क पर खड़ी हो जाती हैं और ट्रकों को इशारा करके उसमें बैठ जाती हैं तथा 40-50 किलोमीटर के बाद उतर जाती हैं। ट्रक में आम तौर पर खलासी के अलावा फर्स्ट ड्राईवर एवं सैकण्ड ड्राईवर रहते हैं जो इस मोबाईल सुविधा सेवा का लाभ उठाते हैं। राष्ट्रीयराजमार्ग के ढाबों पर वीडीयोकोचों का एक अलग विज्ञान है। उसमें जिस ढाबे से ड्राईवर और स्टाफ को फ्री खाना, शराब, सिगरेट और अन्य सुविधाऐं उपलब्ध होती हैं। वहीं बसें रूकती है, तथा नगद पैसा नज़राना और शुकराने के रूप में भी ढाबे वाले उनको देते हैं। बसों में उनकी मिलीभगत से अटैचीचोर, पैसे बैग में से निकालने वाले तथा नं0 2 के व्यापारी जो अघोषित माल, पैसा लेकर चल रहे होते हैं उनको लूटने में भी उनकी मिलीभगती रहती है और वो लोग पुलिस के लिये मुखबरी भी करते हैं और पुलिस को सदा विश्वास में रखते हैं।यह सारी कार्यवाही बिना पुलिस की सरपरस्ती के नहीं हो सकती है पुलिस दूध चुराने वालों से, कैमिकल चुराने वालों से, साबुन डीजल चुराने वालों से तथा मादक पदार्थ व शराब वालों से सम्पर्क में रहती है और ढाबे वालों से नियमित मंथली के रूप में एक बहुत मोटी रकम लेती है और उसकी बन्दर बांट उपर तक होती है मंथली के अलावा अगर कभी कोई केस बनाना पड़ जाये या बन जायेया कोई नया अपराधी आकर वारदात कर जाए तो केस में जो भी पैसा मिले वह पुलिस की खुली मजदूरी है उसमें उपर अधिकारियों का कोई हिस्सा-पानी नहीं है वह थाने व स्टाफ का ही तोड़-बट्टा है उसमें चाहे तो केस दर्ज करो और चाहे लोक अदालत की भावना से थाने परही निपटा दो। यहां पर थानों में जब पोस्टिंग की जाती है तो पहले तो थानेदार देख लेता है कि कौन सा थाना है जिसके हलके में से कितने किलोमीटर का राष्ट्रीय राजमार्ग निकल रहा है और कितने जिलों के लिये राजमार्ग निकल रहे हैं थाने में इन्टरसैप्टर वगैरह भी या नहीं वो थाने का अपने पैरामीटर से चयन करके फिर उस थाने पर लगने की प्रयास करता है और पुलिस के उच्च अधिकारी ‘‘जो बढ़ेगा सो पायेगा‘‘ कि तर्ज पर जो ज्यादा मंथली दे उसकी नियुक्ति उस थाने पर कर देते हैं। इसमें विशेष रूप से पुलिस के उच्च अधिकारी जातीय आधार पर भी अपने सामाजिक सरोकारों का मद्देनजर रखते हुए नियुक्ति देते हैं ताकि खीर पूड़ी की खीर पूडी और बाबा जी के बाबा जी।एक ढाबे से हलका पुलिस कम से कम 50,000/- रूपये महीना लेती है और ढाबों पर होने वाले अपराधों पर अपनी सरपरस्ती और ठण्डी नजर रखती है तथा यह सब कार्य आपसी रजामन्दी से होते हैं इसमें अपराध क्षेत्र थाने से दूर होता है और अगर बात बिगड़ जाए तो परिवादी को समझा बुझा कर रवाना ढाबे वाले ही कर देते हैं कि कहां कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ेगा और कई दिन यहां तुझे पड़ा रहना पड़ेगा इसलिये घर जा, जो हो गया सो भूल जा। ना तो यहां मीडिया की नजर पड़ती है और ना ही कोई जागरूक संगठन सक्रिय होता है। बिल्कुल रामराज की कल्पना का साकार रूप है। राजेश टण्डन, अजमेर।