नीमच 20 अगस्त। मानव स्वभाव के कारण मन की भूख कभी तृप्त नहीं होती है। मानव सत्संग कर संयम को जीवन में आत्मसात करे तो जीवन का कल्याण हो सकता हैं जिसके पास मर्यादा की लज्जा है वही प्राणी सच्चा सुखी हो सकता है। यह बात साध्वी विनयरत्ना श्रीजी म.सा. ने कही। वे पुस्तक बाजार आराधना भवन में चातुर्मास प्रवचन में गुरूवार सुबह 9 बजे बोल रही थीं।
साध्वी श्रीजी ने कहा कि कलंकित लज्जा वाली आत्मा धर्मक्षेत्र में प्रवेष नहीं कर पाती है। लोग मंदिरों में पूजा के कपडों में ही जाएं। फैषन के षार्ट कपडों में नहीं जाएं। हमारे संस्कार खत्म हो रहे हैं। आजकल लोग बैठक में अपषब्द बोल रहे है। लोग लज्जा मर्यादा छोड रहे हैं। लोग मंदिरों में मर्यादा वाले भारतीय संस्कृति के कपडे पहनकर ही जाएं। जैन कुल की बालिकाओं को साथ लेकर घूम रहे हैं। हमारे संस्कार गिर रहे हैं। मन को पवित्र करें तभी हमारा कल्याण होगा। सज्जन व्यक्ति की दृष्टि सदैव एकाग्रचित्त रहती है। आज जानवर भी समझता है लेकिन हम जानकर भी अंजान बन रहे है। एक उपवास की आलोचना दस उपवास की आलोचना है। हम भी चंदनबाला की तरह तपस्या करें। जहां मर्यादा का गुण होता है वहां रूप होता है। सौम्य प्रवृत्ति वाली बेटी पिता की आज्ञा मानती है। 80 वर्ष की मां बेटे को सहला सकती है। 12 वर्ष की बालिका को परपुरूष के साथ एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए। मानव मन चंचल है। साध्वी श्रीजी ने कहा कि मन को आनंदित करने के 3 सूत्र अपनी स्मृति में संजोए रखा। हल्का भूल जाना सीखो। क्योंकि जीवन परिवर्तनषील है। सबको साथ में रखना सीखो क्योंकि स्वजन बिखेरेंगे नहीं। परमात्मा से मिल जाना सीखो जैसे दूध में षक्कर घुल मिल जाती है। मुनिराज रत्न विजय ने कहा कि उपकारी को कभी धोखा मत देना, कृतज्ञ व्यक्ति को भूलो मत अपने जीवन में कृतज्ञनता का गुण परिपक्व करो।
