अहिंसा दिवस: परम्परा, उद्देष्य और महत्व

डॉ. दिलीप धींग
डॉ. दिलीप धींग
वर्ष 2008 में मेरे अहिंसा कार्यों के अन्तर्गत तेबीसवें तीर्थंकर भगवान पार्ष्वनाथ के जन्म कल्याणक पर देष के सबसे बड़े प्रदेष राजस्थान में अहिंसा दिवस की घोषणा1 से मुझे विषेष प्रसन्नता हुई। घोषित अहिंसा दिवसों के समुचित अनुपालन के लिए सम्बन्धित अधिकारियों से चिट्ठी-पत्री करना, ज्ञापन/विज्ञप्ति देना आदि कार्य समाज के सहयोग से मैं वर्षों से कर रहा हूँ। यदि हम निष्ठापूर्वक उचित समय पर उचित तरीके से कार्य करते हैं तो उसका सुफल भी मिलता है। कभी-कभी मेहनत करते हुए भी सफलता नहीं मिलती है या आधी-अधूरी मिलती है तो भी कार्य करने वालों को निराष नहीं होना चाहिये; अपितु अधिक उत्साह से अच्छे कार्य जारी रखने चाहिये। इसके अलावा असफल कार्य भी बड़े अनुभव दे जाते हैं। अहिंसा और सेवा के क्षेत्र में कार्य करने वालों को अध्ययनशील, स्थिरचिŸा, सहिष्णु और लक्ष्य के प्रति समर्पित रहना होता है।
अहिंसा के कार्य करते समय भी लोग कई तरह के सवाल खड़े कर देते हैं, जिनके तर्कसंगत समाधान भी करने होते हैं। कई बार तो हमारे अपने ही व्यक्ति हतोत्साहित करने वाली बातें कर देते हैं और कई बार जिन व्यक्तियों से हम कोई विषेष उम्मीद नहीं रख रहे होते हैं, उनसे अप्रत्याषित सहयोग मिल जाता है। अहिंसा दिवस के अनुपालन और किसी तिथि/पर्व को अहिंसा दिवस के रूप में मनाने के लिए मेरे प्रयासों पर भी जिज्ञासुओं ने कुछ प्रष्न उठाए हैं। एक व्यक्ति ने पूछा कि महज एक दिन या कुछ दिन पषु-पक्षी वध और बूचड़खानों के संचालन पर प्रतिबंध लग जाने से क्या फर्क पड़ जाता है। अहिंसा दिवस (अमारि, अगता या अक्ता) के सम्बन्ध में तीन बिन्दु मननीय हैं –
 हिंसा को स्थगित करना भी अहिंसा है,
 हिंसा की मांग व पूर्ति को प्रतिबंधित करना भी अहिंसा है, तथा
 हिंसा का अल्पीकरण भी अहिंसा है।
अहिंसा दिवस के पालन से हिंसा एक या कुछ दिनों के लिए स्थगित की जाती है। इससे जनजीवन में अहिंसा के प्रति अनुकूल वातावरण बनता है। दूसरा अहिंसा दिवस के माध्यम से सीधे तौर पर हिंसा की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगाया जाता है। अहिंसा दिवस का सही रूप से प्रचार हो और सामिषभोजी व्यक्तियों या समुदायों में यह चेतना जागृत की जाए कि अमुक दिन पर उन्हें मांस आदि का वर्जन करना है तो हिंसा की मांग थोड़े समय के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। मांग और पूर्ति अन्योन्याश्रित हैं। अर्थषास्त्र के अनेक नियम तथा वस्तुओं के दाम मांग और पूर्ति के सिद्धान्त के अनुसार तय होते हैं। हम सामान्य तौर पर देखते हैं कि जब जलापूर्ति या बिजली वितरण में कटौती की जाती है तो उनका उपभोग कम हो जाता है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जल या बिजली की बचत के लिए उनके वितरण में कटौती की जाती है। इसी प्रकार राज्य की ओर से जितने अंशों में या जिस किसी रूप में हिंसा में कटौती की जाती है या हिंसा पर अंकुष लगाया जाता है, उतने ही अंषों में अहिंसा को राज्याश्रय मिलता है। अहिंसा को राज्याश्रय मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
लोग एक और प्रष्न उठाते हैं कि अगते घोषित तो हो जाते हैं लेकिन उनका पालन ठीक ढंग से नहीं होता है। राजकीय आदेष पहली बात है, वह कानूनन बाध्यकारी होता है। सरकारी आदेष के सही अनुपालन के लिए शासन, प्रषासन और जनता – सबकी जिम्मेदारी बनती है। जब अन्य नियमों के प्रति समाज, सरकार, मीडिया आदि पर्याप्त चौकन्ने रहते हैं तो अहिंसा दिवस के पालन में ढिलाई कतई उचित नहीं है। जागरूक व्यक्तियों द्वारा अहिंसा दिवस के सही अनुपालन के लिए समाज में माहौल बनाया जाना चाहिये।
अहिंसा दिवस के अनुपालन में जैन समाज ने हमेषा पहल की है। लेकिन इस कार्य को सिर्फ जैन समाज के धरातल पर करने की बजाय अन्य सभी समाजों या उनके प्रतिनिधियों के साथ मिलकर करना चाहिये। अहिंसा सबकी है और सबके लिए है। वह जोड़ती है। अहिंसा की आराधना में पंथ, जाति, वर्ग आदि भेदों की उपेक्षा की जानी चाहिये। अहिंसा दिवस के समुचित अनुपालन के लिए निम्न प्रयासों के अच्छे परिणाम मिल सकते हैं –
 समस्त अहिंसक व शाकाहारी समाज अहिंसा दिवस के पालन के प्रति प्रतिबद्धता दर्षाएँ।
 सामिषभोजी व्यक्तियों को चाहिये कि वे अहिंसा दिवस पर मांस क्रय करके गैर-कानूनी कार्य नहीं करें।
 वध-व्यवसाय से जुड़े व्यक्तियों को उनके व्यवसाय से जुड़े कानूनी नियमों के पालन का दायित्व समझना/समझाना चाहिये।
 मीडिया, प्रषासन व स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से तथा अन्य उचित तरीकों से सम्बन्धित व्यक्तियों को कानून के अनुपालन के लिए प्रेरित करना चाहिये।
 शासन व प्रषासन को उनके कानूनी फर्ज को निभाने की याद दिलानी चाहिये और चूक करने पर उनके प्रति नाराजगी व्यक्त करनी चाहिये तथा मीडिया आदि के माध्यम से उनका ध्यान आकृष्ट करना चाहिये।
 अहिंसा, शाकाहार और प्राणी रक्षा के पक्ष में प्रचुर तथ्य और सामग्री हैं। अहिंसा दिवस के अनुपालन के लिए ऐसे तथ्य समाज, प्रषासन और आम आदमी तक पहुँचाए जाने चाहिये।
कार्यकर्ताओं के समक्ष बहुत सारे तथ्य और परिस्थितियाँ होती हैं। हमारे प्रयासों से जितने अंषों में अगता का पालन होता है, उतने अंषों में हिंसा का अल्पीकरण मानते हुए आगे और अधिक प्रयास करने चाहिये।
जैन ग्रन्थों में अहिंसा दिवस के समर्थन में अनेक सूत्र, सन्दर्भ व प्रसंग मिलते हैं। अहिंसा दिवस के माध्यम से जीवों का वध रुकता या टलता है तो वह भी अहिंसा का एक रूप ही है। मगध सम्राट श्रेणिक को जब उनके नरकगामी होने का पता चलता है तो नरक से बचने के लिए वे विविध उपाय करते हैं। तीर्थंकर महावीर द्वारा एक उपाय उन्हें यह सुझाया गया कि यदि वे कालषौकरिक कसाई से पषुवध बंद करवा दे तो उनकी नरक टल सकती है।2 जीव हिंसा रुकवाने के महान फल के पक्ष में ही आगम ग्रन्थों में अभयदान (जीवनदान) को सर्वोŸाम दान कहा गया है।3 अभयदान की यह परम्परा आगम युग से आज तक चली आ रही है।
इस परम्परा में जैनाचार्यों, सन्तों और अहिंसानिष्ठ व्यक्तियों ने अपनी-अपनी सामर्थ्य और प्रभाव से हर कालखण्ड में अमारि की तरह तरह की घोषणाएँ करवाईं। हेमचन्द्राचार्य के उपदेष से गुर्जर राज्य के महाराजा कुमारपाल ने उनके अधीनस्थ सभी 18 देषों में निरन्तर 14 वर्षों तक अमारि की घोषणा का पूर्णतः प्रभावपूर्ण ढंग से पालन करवाकर अगणित मूक पषु-पक्षियों को अभयदान प्रदान किया।4 शान्ति, सुरक्षा, समृद्धि और सर्वांगीण विकास की दृष्टि से कुमारपाल का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल था। अहिंसा के अनुपालन से समग्र और स्थायी उन्नति का यह अमर ऐतिहासिक उदाहरण है। सम्राट् अषोक द्वारा की गई अहिंसा की उद्घोषणाएँ आज भी षिलालेखों में विद्यमान है।5 आचार्य हीरविजयसूरि की प्रेरणा से सम्राट् अकबर ने पर्युषण तथा कई भारतीय पर्व उत्सवों पर अहिंसा दिवस के अनेक फरमान जारी करके उनका पालन करवाया था। उनके बाद आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने भी अकबर को प्रतिबोधित किया था।6 जैनाचार्यों की प्रेरणा से अकबर ने स्वयं भी मांसाहार का त्याग कर दिया था।7
14 मार्च 2008 को सर्वोच्च न्यायालय ने जब यह निर्णय सुनाया कि जैन धर्मावलम्बियों की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए पर्युषण के दौरान नौ दिन तक कत्लखाने बन्द रखे जाने चाहिये, तब उस निर्णय में सम्राट अकबर का भी हवाला दिया गया था।8 इस क्रम में जैन समाज की मांग पर वर्ष 2008 में राजस्थान में श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज के 18 दिवसीय पर्युषण में से 9 दिनों (31 अगस्त, 1, 2, 3, 4, 7, 10, 14 और 16 सितम्बर 2008) के लिए पषु वधगृह और मांस-मछली की दुकानें बन्द रखने का आदेष दिया गया।9 अन्य प्रान्तों में भी विभिन्न अवसरों पर अमारि-प्रवर्तन के ऐसे राजकीय आदेष जारी किये जाते हैं।
जैन दिवाकर मुनि चौथमलजी का सम्पूर्ण जीवन प्राणियों के अवध और जीवों की अहिंसा के लिए समर्पित था। तत्कालीन रियासतों और ठिकानों की ओर से उनकी प्रेरणा से हुए अहिंसा के आदेषों में अनेक मननीय तथ्य मिलते हैं10 –
 उनसे पूर्व भी शासन की ओर से कई अहिंसा दिवस घोषित थे। जैन दिवाकरजी की प्रेरणा से शासकों ने विद्यमान अगता के प्रभावी पालन का संकल्प व्यक्त किया और कुछ नये अगता की घोषणा और अहिंसा के संकल्प किये।
 एक साथ कई दिनों, सप्ताहों, पखवाड़ों और महीनों तक निरन्तर अहिंसा दिवस कायम रहते थे। जैसे कई रियासतों या ठिकानों की ओर से जन्माष्टमी से लगाकर अनन्त चतुर्दशी (22 दिनों) तक तथा सम्पूर्ण श्राद्ध पक्ष में बूचड़खाने बन्द रहते थे तो कई स्थानों पर पूरे श्रावण और भादवा; कहीं श्रावण, भादवा, कार्तिक और वैशाख तो कहीं निरन्तर चार महीने चौमासे के अहिंसा दिवस के रूप में उल्लेखित हैं। कुछ जगहों पर अन्य दिनों के अलावा माह की दोनों एकादषी तथा पूर्णिमा व अमावस्या को भी स्थायी अगते घोषित थे।
 कुछ राजाओं की ओर से अधिक मास होने की स्थिति में पूरा अधिमास अहिंसा दिवस के रूप में घोषित था।
 स्टेट कौंसिल जोधपुर में अगता कमेटी बनी हुई थी, जो अगता की घोषणा और उनके सही अनुपालन के लिए कार्य करती थी।
 अहिंसा दिवस के अन्तर्गत मुख्यतः बूचड़खाने और मांस-मछली की दुकानें बन्द रहती थीं। जलाषयों में मत्स्याखेट और जंगलों में षिकार भी प्रतिबंधित रहता था। कई आदेषों में शराब की दुकानें बन्द रखने और मदिरा-निर्माण की भट्टियों पर प्रतिबंध का भी उल्लेख है।
स्पष्ट है कि भारतीय धर्मों में पर्व तिथियों पर अगता पलवाने की प्राचीन परम्परा रही है। जैन धर्म और समाज ने इस परम्परा को आगे बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाई है। फलस्वरूप जैनेŸार समुदायों के द्वारा भी एवं जैनेŸार पर्व-तिथियों पर भी समय समय पर अहिंसा दिवसों की घोषणा और उनका अनुपालन किया और करवाया जाता है। राजस्थान में प्रतिवर्ष सत्रह दिनों के लिए स्थायी अगते घोषित हैं।11 उनमें महावीर जयन्ती और आचार्य देवेन्द्र पुण्यतिथि का सीधा सम्बन्ध जैन समाज से है। संवत्सरी के अगते भी गणेष चतुर्थी, ऋषि पंचमी और अनन्त चतुर्दषी के नाम से घोषित है। अन्य अहिंसा दिवसों के अन्तर्गत गणतंत्र दिवस, शहीद दिवस, महाषिवरात्रि, रामनवमी व ज्योतिराव जयन्ती, बुद्ध पूर्णिमा, स्वतन्त्रता दिवस, जन्माष्टमी, गांधी जयन्ती, पेड़ा ग्यारस, रूप चौदस, दीपावली और कार्तिक पूर्णिमा है। राजस्थान उच्च न्यायालय और श्रम विभाग के आदेश के अनुसार प्रत्येक शुक्रवार को भी अगता घोषित है। कुछ जिलों में जिला/नगर स्तर पर अग्रसेन जयन्ती, अंबेडकर जयन्ती आदि दिनों के लिए भी अहिंसा दिवस घोषित किये जाते हैं। गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयन्ती और अन्य कुछ विशेष अवसरों पर राज्य की ओर से मद्य-निषेध भी लागू रहता है।
जैन धर्म ने अहिंसा में इतनी गहरी आस्था व्यक्त की, कि अहिंसा की उपासना को किसी भी नाम और निमिŸा से स्वीकार कर लिया। इन अहिंसा दिवसों का प्रचार प्रसार भी मुख्यतः जैन समाज की पत्र-पत्रिकाओं में ही होता है। वस्तुतः सभी पर्व दिवस हमारे सबके हैं। अहिंसा दिवस की दृष्टि से उनका प्रचार सर्वत्र होना चाहिये। इससे अहिंसा दिवस के अनुपालन में सबकी सहभागिता भी जुड़ जाएगी। राजस्थान की अहिंसा दिवस की सूची देखने से पता चलता है कि अहिंसा भारत की आत्मा है। इसमें बिना किसी भेदभाव लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक पर्वों पर अगता पलवाने की शुभ परम्परा को कायम रखने का प्रयत्न किया गया है।
अन्य राज्यों में भी स्थायी या अस्थायी अहिंसा दिवस घोषित हैं, लेकिन उनका पर्याप्त प्रचार नहीं देखा गया। अहिंसा के लिए कार्य करने वालों को अहिंसा दिवसों के समुचित अनुपालन तथा नवीन अहिंसा दिवसों की राजकीय घोषणा के लिए प्रयास करना चाहिये। वांछित परिणाम और व्यापक सफलता के लिए सभी समुदाय के व्यक्तियों को मिलकर कार्य करना चाहिये।
आज संसार अनेक समस्याओं और संकटों से घिरा हुआ है। यदि सभी समस्याओं को एक ही शब्द में कहना पड़े तो वह है – हिंसा। और यदि एक ही शब्द में कोई समाधान है तो वह है – अहिंसा। अहिंसा का प्रकृति और पर्यावरण पर बेहद अनुकूल प्रभाव होता है। इस सम्बन्ध में अहिंसा दिवस के महत्व को प्रतिपादित करने वाली एक घटना बहुत प्रेरक है।12 वि. सं. 1948 (1927 ई.) में जैन दिवाकर चौथमलजी का वर्षावास जोधपुर (राज.) में था। बारिश नहीं होने की वजह से तत्कालीन जोधपुर स्टेट के प्रधानमंत्री की ओर से बारिष की मन्नत के साथ प्रजा से एक दिन शक्ति दिवस के रूप में मनाने के लिए उद्घोषणा की गई। जैन दिवाकरजी ने भी यह उद्घोषणा सुनी तो एक श्रावक के माध्यम से अधिकारी से कहलवाया कि जब तक कसाईखानों में हिंसा चालू है, मूक प्राणियों की गर्दन पर छुरे चलते रहेंगे, तब तक कोरी भक्ति या प्रार्थना से कुछ नहीं हो सकता। सुकाल के लिए कत्लखानों को बन्द करवाना होगा। दिवाकरजी के सुझाव पर भक्ति दिवस को अहिंसा दिवस या अहिंसामय भक्ति दिवस के रूप में मनाने की संशोधित उद्घोषणा हुई। घोषणा के अनुसार वध और वधगृहों का संचालन पूर्णतः बन्द रहा। इसे अहिंसा का सुप्रभाव ही कहना चाहिये कि दूसरे ही दिन हुई जोरदार वर्षा से अकाल का अंधेरा, सुकाल के सवेरे में बदल गया। वध-निषेध, मांस-निषेध और बूचड़खानों के संचालन पर प्रतिबंध को लेकर वर्तमान में अनेक नये आयाम जुड़े और जुड़ रहे हैं। कत्लखानों के विरुद्ध आवाज उठ रही है।
शान्ति के लिए अहिंसा दिवस की भारतीय परम्परा का महŸव संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी समझा और वर्ष 2007 से अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के जन्म दिन 2 अक्टूबर को प्रतिवर्ष ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में घोषित किया। लेकिन अहिंसा दिवस के स्वरूप को दुनिया के समक्ष सही और व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना अभी शेष है। यह तो सब कहते हैं कि दुनिया, मानव और मानवता को बचाने के लिए अहिंसा ही एक मात्र रास्ता है। किन्तु दुनियावालों को यह समझना चाहिये कि निरीह पषु-पक्षियों की हत्या रोके बिना, शाकाहार अपनाए बिना अहिंसा की बात अधूरी रहती है।
घातक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने के लिए भी जीवहत्या और मांसाहार पर अंकुश आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत कार्य करने वाली नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त संस्था इंटरनेशनल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी.) ने अपील की है कि कोई व्यक्ति या समाज पूरी तरह शाकाहार नहीं अपना सके तो भी हफ्ते में कम-से-कम एक दिन तो वह मांस जरूर छोड़े।13 आई.पी.सी.सी. की यह वैश्विक अपील अहिंसा-दिवस का ही रूप है, जिसमें पर्यावरण की रक्षार्थ सप्ताह में एक दिन पूर्ण शाकाहारी रहने का आग्रह किया गया है। वस्तुतः अहिंसा दिवस की परम्परा को आगे बढ़ाना समय की मांग है और आवश्यकता भी।

सन्दर्भ:-
1. राजस्थान सरकार के स्वायŸा शासन विभाग द्वारा 11 सितम्बर 2008 को जारी आदेश क्रमांक पं. 24 (ग) (13)/नियम/डीएलबी/89/5585-5768. एवं देखें, जिनवाणी (मासिक) नवम्बर 2008 का अंक।
2. ‘‘कालसौकरिकेणाथ सूना मोचयसे यदि, तदा ते नरकान्मोक्षो राजंजायेत् नान्यथा’’ – त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र’ (10/9/145)
3. ‘‘दाणाण सेट्ठं अभयप्पयाणं’’ – सूत्रकृतांग सूत्र (1/6/23)
4. ‘जैन धर्म का मौलिक इतिहास’, आचार्य हस्तीमलजी, चतुर्थ भाग, पृष्ठ 343
5. डॉ. प्रेमसुमन जैन द्वारा सम्पादित ‘प्राकृत भारती’ में अशोक के अभिलेख (गिरनार पाठ), पृष्ठ 90 (मूलपाठ) एवं पृष्ठ 211 (अनुवाद)
6. देखें, अगरचन्द नाहटा व भँवरलाल नाहटा द्वारा लिखित एवं प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित पुस्तक ‘युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि’ के छठे व सातवें प्रकरण
7. देखें, श्री आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसायटी, अम्बाला शहर द्वारा सन् 1922 में प्रकाशित ‘अकबर और जैन धर्म’ पुस्तक।
8. जिनवाणी (मासिक), अप्रेल 2008, पृष्ठ 99-100
9. राजस्थान पत्रिका, उदयपुर, 31 अगस्त 2008, मुखपृष्ठ
10. देखें – उपाध्याय मुनि प्यारचन्दजी लिखित पुस्तक ‘आदर्श उपकार’
11. स्रोत – जशकरण डागा, मंत्री, जीवदया मण्डल, टोंक (राज.)
12. ‘जैन दिवाकर: संस्मरणों के आइने में’, प्रवर्तक रमेशमुनि, पृष्ठ 33-34
13. गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली से प्रकाशित द्वैमासिक ‘गांधी मार्ग’, सितम्बर-अक्टूबर 2014 में चेतना जोशी का लेख, पृष्ठ 38

– डॉ. दिलीप धींग –
(निदेषक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)
Dr. Dileep Dhing, Director-ICPSR,
Sugan House, 18, Ramanuja Iyer Street,
Sowcarpet, Chennai–600079

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