विभिन्न प्रान्तों में दशहरा बनाने के विभिन्न तरीके

डा. जे. के. गर्ग
डा. जे. के. गर्ग
भारतीय संस्कृति में सभी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक स्तर पर मनाये जाते हैं इसीलिए हमारे देश में उत्सवों को मनोरंजक एवं व शिक्षाप्रद बनाने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी आयोजन किया जाता है। सभी पर्व हमें भाई चारे, सामाजिक सोहार्द एवं सांस्कृतिक तारतम्य में अभिव्र्द्दी के साथ अपनी सभ्यता के स्वर्णिम काल एवं गोरवशाली अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास भी दिलाते हैं। त्यौहारों को मनाने के तरीके अलग अलग हो सकते हैं किन्तु उनका उद्देश्य तो आपसी मेल–जोल एवं बंधुत्व की भावना को बढ़ाना ही होता है।
राजस्थानी कोटा का दशहरा मेला

कोटा को बसाने वाली जाति यानी भील समाज के लिए ये दशहरा का मेला जीवनसाथी को तलाशने का बड़ा माध्यम होता है क्योंकि कोटा के दशहरे मेले के प्रथम 3 दिन भील समाज के युवक मेले में अपनी पंसद की लड़की देखकर अपने मां-बाप से रजामंदी प्राप्त करने के बाद रिश्ते का पैगाम लड़की वालों को भिजवातें है| वहीं लड़कियों के मां-बाप भी अपनी बेटी के लिए अच्छे वर की खोज में इस मेले में शामिल होते हैं | यहाँ पंचमी के दिन से मेला भरने लगता है तथा अष्टमी के दिन कोटा के महाराव कुल देवी आशापुरा देवी का पूजन करते थे वहीं महाराव नवमी के दिन आशापुरा देवी के खांडा एक प्रकार का शस्त्र रखने जाते थे । दरी खाने में रावण से युद्ध करने पर विचार होता था एवं तोपें चलायी जाती थी । विजय दशमी के दिन रावण वध की सवारी निकलती थी ,कई तोपें चलतीं ,रावण पर महाराव साहेब तीर चलाते । अब कोटा के इस मेले का रूप आधुनिक हो गया है । आज भी यह मेला अपने आप में विशिष्ट है । यह मेला पूरे 20 दिन तक चलता है ।
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा
कुल्लू में दस दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व दशहरा पर्व की तैयारीयां शुरू हो जाती है। सभी स्त्री-पुरुष आकर्षक वस्त्रों को पहन कर अपने वाद्य यंत्रों यथा तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी आदि लेकर घरों से बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम धाम से भव्य जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं। जुलूस बनाकर नर-नारी नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर की परिक्रमा करते हैं और रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं।
पंजाब
यहाँ दशहरानवरात्रिके नौ दिन का व्रत-उपवास रखकर मनाया जाता हैं, इस दौरान घर पर आने वाले आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई खिला कर एवं विभिन्न उपहार देकर किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं तथा खुल्ले मैदानों में मेले लगते हैं
बस्तर का दशहरा
बस्तरमें दशहरे को यहाँ के लोग मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता देवी दुर्गा का ही रूप है | दंतेश्वरी माता ही बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं | यहां यह पर्व पूरे 75 दिन तक चलता है। यहां दशहराश्रावणमास कीअमावससे आश्विनमास कीशुक्लत्रयोदशीतक चलता है। प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोह के शुरू करने की अनुमति लेते हैं । देवी एक कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहते हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग 500 साल पूर्व शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापनअश्विनशुक्लत्रयोदशीको ओहाड़ी पर्व से होता है।
मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा
कर्नाटक मेंमैसूरका दशहरापूरे भारत में प्रसिद्ध है।मैसूरमें दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सुसज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर उनका पूरे शहर में भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्धमैसूर महलको दीपमालाओं से दुलहन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभायात्रा का आनंद लेते हैं। वाड्यार राजाओं के काल से शुरू हुये इस दशहरे को अभी तक भी राजसी शान शोकत के साथ मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण –सिंहासन को प्रदर्शित किया जाता है।
आंध्रप्रदेश का दशहरा
आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मोत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक–पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही चक्रस्नान (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है।
केरल का दशहरा
केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से ’पूजा वैपू’ के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ’पूजा इदप्पु’ के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है।
तमिलनाडु का दशहरा
तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हैं।
इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता
गुजरात का दशहरा
गुजरातमें मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है।गरबा नृत्यइस पर्व की शान है। पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोक-संगीत सभी का समायोजन होता है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात होता रहता है। नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है।गुजरात में दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया–रास की धूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ’गरबो’ के इर्द–गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का ध्यान करती हैं। गरबा के बाद डांडिया–रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया–रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है।

महाराष्ट्र का दशहरा
महाराष्ट्रमेंनवरात्रिके नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवीसरस्वतीकी वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं।
महाराष्ट्रमें इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार कर शमीवृक्ष के पत्तों के रूप में ‘स्वर्ण’ लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।
कश्मीर का दशहरा
कश्मीरके हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माताखीर भवानीके दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचोबीच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों से कहा हुआ है कि यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।
बंगाल का दशहरा
मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की थी। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। कहते हैं कि प्लासी के युद्ध (1757) में विजय के पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु सहयोगी राजा नवकृष्णदेव की सलाह पर कलक्त्ता के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा–पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं बर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्णदेव द्वारा की गई दुर्गा–पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारों ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 में प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारों से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राह्मणों ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा–पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे–धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।
डा.जे.के.गर्ग
सन्दर्भ—–विकीपीडिया,गूगल सर्च, वेब इंडिया आदि

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