आओ नये साल में नये संकल्प बुनें

ललित गर्ग
ललित गर्ग
नए वर्ष का स्वागत हम इस सोच और संकल्प के साथ करें कि हमें कुछ नया करना है, नया बनना है, नये पदचिह्न स्थापित करने हैं। बीते वर्ष की कमियों पर नजर रखते हुए उन्हें दोहराने की भूल न करने का संकल्प लेना है। दूसरे के अस्तित्त्व को स्वीकारना, सबके साथ रहने की योग्यता एवं दूसरे के विचार सुनना- यही शांतिप्रिय एवं सभ्य समाज रचना का आधारसूत्र है और इसी आधारसूत्र को नये वर्ष का संकल्पसूत्र बनाना होगा।
आज सब अपनी समझ को अंतिम सत्य मानते हैं। और बस यहीं से मान्यताओं की लड़ाई शुरू हो जाती है। कोई वेद, बाईबल, कुरान, ग्रंथ या सूत्र ये पाठ नहीं पढ़ाते। तीन हजार वर्षों में पांच हजार लड़ाइयां लड़ी जा चुकी हैं। एकसूत्र वाक्य है कि ”मैदान से ज्यादा युद्ध तो दिमागों से लड़े जाते हैं।“
नया वर्ष नया संदेश, नया संबोध, नया सवाल, नया लक्ष्य लेकर उपस्थित हो पर जीवन की भी कैसी विडम्बना! हर वर्ष एक दिन के लिए ही हम स्वयं को स्वयं के द्वारा जानने की कोशिश इस संकल्प के साथ करते हैं कि ऐसा हम तीन सौ पैंसठ दिन करेंगे, लेकिन वर्ष की दूसरी तारीख ही हमें अपने संकल्प, अपनी शपथ से भटका देती है। नए वर्ष को सचमुच सफल और सार्थक बनाने के लिए हमें कुछ जीवन-मंत्र धारण करने होंगे। यूं तो हमारे धर्म-ग्रंथ जीवन-मंत्रों से भरे पड़े हैं। प्रत्येक मंत्र दिशा-दर्शक है। उसे पढ़कर ऐसा अनुभव होता है, मानो जीवन का राज-मार्ग प्रशस्त हो गया। उस मार्ग पर चलना कठिन होता है, पर जो चलते हैं वे बड़े मधुर फल पाते हैं। कठोपनिषद् का एक मंत्र है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ इसका अर्थ किया गया है-उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ, जो तुम्हारा परिचय परब्रह्म परमात्मा से करा सकें। इस अर्थ में तीन बातें निहित हैं। पहली, तुम जो निद्रा में बेसुध पड़े हो, उसका त्याग करो और उठकर बैठ जाओ। दूसरी, आंखें खोल दो अर्थात अपने विवेक को जागृत करो। तीसरी, चलो और उन उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ, जो जीवन के चरम लक्ष्य का बोध करा सकें।
एक साल और अतीत हो रहा है, बीत रहे साल को सचाई से देखा जाये तो यूं समझना चाहिए कि हमने इस बार जीने का सही अर्थ ही खो दिया है। यद्यपि बहुत कुछ उपलब्ध हुआ है। कितने ही नए रास्ते बने हैं। फिर भी किन्हीं दृष्टियों से हम भटक रहे हैं। भौतिक समृद्धि बटोरकर भी न जाने कितनी रिक्तताओं की पीड़ा सही है। गरीब अभाव से तड़पा है, अमीर अतृप्ति से। कहीं अतिभाव, कहीं अभाव। जीवन-वैषम्य कहां बांट पाया अपनों के बीच अपनापन। अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, बस्तियां बस रही हैं मगर आदमी उजड़ता जा रहा है। पूरे देश में मानवीय मूल्यों का हृास, राजनीति अपराध, भ्रष्टाचार, कालेधन की गर्मी, लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन, अन्याय, शोषण, संग्रह, झूठ, चोरी महिलाओं का उत्पीड़न जैसे-अनैतिक अपराध पनपे हैं। धर्म, जाति, राजनीति-सत्ता और प्रांत के नाम पर नए संदर्भों में समस्याओं ने पंख फैलाये हैं। हर साल आप, हम सभी अपने आपको जीवन से जुड़ी अंतहीन समस्याओं के कटघरे में खड़ा पाते हैं। कहा नहीं जा सकता कि इस अदालत में कहां, कौन दोषी है? पर यह चिंतनीय प्रश्न अवश्य है हम इतने उदासीन एवं लापरवाह कैसे हो गये कि राजनीति को इतना आपराधिक होने दिया? जब आपके द्वार की सीढि़यां मैली हैं तो अपने पड़ौसी की छत पर गन्दगी का उलाहना मत दीजिए। कोई भी अच्छी शुरूआत सबसे पहले स्वयं की की जानी जरूरी है।
सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चैराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सचाई की साक्षी ढूंढती हैं। समस्याओं से लड़ने के लिये हमारी तैयारी पूरे मन से होनी चाहिए। सरदार पटेल का एक मार्मिक कथन है कि यह सच है कि पानी में तैरने वाले ही डूबते हैं, किनारे पर खड़े रहने वाले नहीं। मगर ऐसे लोग तैरना भी नहीं सीखते। ठीक इसी भांति स्वस्थ समाज निर्माण करने में वे ही लोग सफल होते हैं जो कठिनाइयों एवं विपरीत परिस्थितियों का पूरे साहस एवं आत्मविश्वास के संघर्ष करते हंै।

जीवन-निर्माण की शुरूआत कहां से करें ? जीवन विकास के राजपथ पर स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय काम नहीं करता। यहां तो सत्य की तलाश में आस्था, निष्ठा, संकल्प और पुरुषार्थ ही जीवन को नयी दिशा दे सकतेे हैं। महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद का अर्थ है-नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनो से अपने पराए हो जाना, सही गलत को समझने का विवेक न होना। ‘मैं’ का संवेदन भी प्रमाद है जो दुख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिये से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। चरित्र का सुरक्षा कवच अप्रमाद है जहां जागती आंखों की पहरेदारी में बुराइयांे की घुसपैठ संभव ही नहीं। बुराइयां दूब की तरह फैलती है मगर उनकी जड.े गहरी नहीं होती, इसलिये उन्हें थोड.े से प्रयास से उखाड. फेंका जा सकता है। ज्योंही स्वयं पर स्वयं का विश्वास एवं अपनी बुराइयांे का बोध जागेगा, परत-दर-परत जमी बुराइयों एवं अपसंस्कारों में बदलाव आ जाएगा। जिन्दगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि चरित्र जितना ऊंचा और सुदृढ. होगा,जीवन मूल्य उतनी ही तेजी से विकसित होंगे और सफलताएं उतनी ही तेजी से कदमों को चूमेगी। इसलिए मनुष्य की परिस्थितियां बदले, उससे पहले उसकी प्रकृति बदलनी जरूरी है। बिना आदतन संस्कारों के बदले न सुख संभव है, न साधना और न साध्य।

बस, वही क्षण जीवन का सार्थक है जिसे हम पूरी जागरूकता के साथ जीते हैं और वही जागती आंखांे का सच है जिसे पाना हमारा मकसद है। सच और संवेदना की यह संपत्ति ही नए वर्ष में हमारी सफलता को सुनिश्चित कर सकती है। अतः आइए इस विश्वास और संकल्प को सचेतन करें कि आज तक जो नहीं हुआ वह अब हो सकता है। हम कोशिश करें कि ‘जो आज तक नहीं हुआ वह आगे कभी नहीं होगा’ इस बूढ़े तर्क से बचकर नया प्रण जगायें। बिना किसी को मिटाये निर्माण की नई रेखाएं खींचें। यही साहसी सफर शक्ति, समय और श्रम को सार्थकता देगा। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोनः 22727486, 9811051133

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