वैश्वीकरण की रजत जयंती

Ras Bihari Gaur (Coordinator)पचास सालाना उम्र के झांकते अतीत में कुछ चित्र आज भी मानस-चित्राहार का स्थाई हिस्सा हैं कि कैसे हमलोग “हमलोग” देखने के लिये बेताब रहते थे, “बुनियाद” के दृश्यों में परिवार की बुनियाद ढूंढते थे,, “ये जो है जिंदगी” से जिंदगी में रंग भरते थे, ” भारत एक खोज” से देश-दुनियाँ के सच को जानते थे। पर अब सब कुछ बदल गया। रामायण और महाभारत की आस्थाओं से सूनी हुई सड़को से शुरू सास बहु के संबंधो और साधू ,संतों ,सितारों ,की चकाचौंध का बदलाव कुछ ऐसा रास आया कि टी वी के किरदारों ने हमारे चरित्र ही बदल दिए। आज समाज और सत्ता हर जगह एक बिग बोस होता है। जिसके इशारों पर घृणा और हिंसा का अंतहीन सीरियल हमारे आसपस चलता रहता है। ये बातें चैनल की जुबान में इसलिए कही गई क्योकिं बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण शायद दूरदर्शन से चैनल की यात्रा में निहित है। वे लोग जो पद के मद में हर विकास के भागीरथ बनाना चाहते हैं, नहीं जानते इस रंग- बिरंगी दुनियां का आगाज किसने किया और उसके मूल फलित क्या रहे।
जी ,हाँ! पूरे पच्चीस वर्ष हुये जब तात्कालिक नरसिंघाराव सरकार ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था को नया युग प्रदान किया। तमाम तरह की आलोचना और स्वदेशी उद्घघोषों के बीच यह साहसिक कदम हर खासों- आम को अनेकों आशंकाओं से भर रहा था। किन्तु परिणाम सामने हैं। जो अर्थव्यवस्थ कभी 3 या 3.5 की दर से आगे खिसकती थी, वह 7,7.5 या 8 की दर के मतलब समझ गई। हम दुनिया की तीसरी आर्थिक ताकत बन गए। घर बनाना सपना नहीं, सामर्थ्य की श्रेणी में आ गया। टीवी, कार, मोबाइल, एसी, हवाई -यात्राएं, आम हो गई। प्रगति और विकास के सारे भौगोलिक पथ एक साथ प्रज्ज्वलित हो गए। दो पूरी पीढ़ीयों ने रफ़्तार के कंधो पर चढ़कर एक उम्र में ही दो अलग अलग युग देखे।
उजाले के नीचे बिछी परछाई में अक्सर सच खड़ा मिलता है। तो इस चमक के साथ कुछ विकृतियां भी आई। बाजार की सत्ता, समाज, राजनीती, धर्म, विज्ञान, साहित्य , सभी को एक साथ संचालित करने लगी। जीवन मूल्य बिखर गए। आपाधापी को नए आकाश मिले। शोषण को नियम और संवेदना को खालीपन माना गया। सर्वाइवल ऑफ़ फिट्टेस्ट(survival of fittest) का जंगली नारा सभ्य समाज की आचार संहिता बन गया।
असहज संघर्षों की सहज परिणित के साथ एक उम्र प्रौढ़ता को पा गई और नई कौपले परिवर्तन की जमीन पर इंटरनेटी सपनों के साथ जवान हो गई। दोनों के लिए जीवन विलासिता का पर्याय हो गया। युवा से प्रौढ़ हुये वर्ग ने बैकों और आर्थिक नीतियों के चलते सुविधाओं के सम्मोहन को उपलब्धि माना और दायित्वों से मुक्ति पा ली। उधर कली से फूल हुई उम्र शिक्षण संस्थानों की देहरी पर पकने लगी। उसकी स्वाभाविक महक को निचोड़ कृत्रिम पैकेज के इत्र बनाये गए। जिन्हें हवा में और हवा के साथ आभासी उडान के भरोसे छोड़ दिया गया। हवा के साथ दौड़ में दौड़ते हुये समय, समाज, सम्बन्ध सब पीछे छूट गए।
संस्कृति,संस्कार,संवेदना,सम्बल,सब फैशन की तरह ओढ़े जाने लगे। जीवन जीने की भाव वाचक संज्ञाएँ शब्दकोशों में कैद होकर रह गई। अपने आज का उत्सव बनाते हुये हमने ना तो बीते कल को सहेजा और ना ही आने वाले कल की आवाज सुन पा रहे हैं। गगनचुम्भी इमारत के किसी माले पर खाली आसमान को ताकती जब ये पीढ़ी प्रौढ़ होकर वैश्वीकरण की स्वर्ण जयंती बना रही होगी ।तब इसकी स्मृति के झरोके में कोई ब्लैक एन्ड वाइट चित्र नहीं होगा ।रंगीन दुनियाँ से ऊबी उम्र तब कहाँ और किसमें अपना अक्ष टटोलेगी।
सम्भवतः आपको मेरा दृष्टिकोण नकारात्मक लगे, किंतु समय को लिखने पढ़ने वालों की इस पीढ़ा को भी पढ़ा जाना चाहिए कि समय जब आपसे हिसाब मांगे तो नफा और नुकसान दोनों के बहीखाते सामने हो।सुविधा और सम्पन्नता के साथ संवेदना को बचाकर रखना वैश्वीकरण की सबसे बड़ी चुनौती है।शायद तभी हम किसी रजत जयंती या गोल्डन जुबली के उत्सवों को पूरे मन से मना सके।
रास बिहारी गौड़ www.rasbiharigaur.com

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