मेरा देश, मेरा मकान

रास बिहारी गौड़
रास बिहारी गौड़
जी, हा ! सदियों अवैध अधिकार, गैर- कानूनी किरायेदार के कब्जे में रहा मेरा मकान 69 साल पहले एक बूढी काया और लाठी की बदौलत आज़ाद तो हुआ, किन्तु भाइयों की आपसी नासमझी या तात्कालिक समझ के चलते दो हिस्सों में बँट गया। फिर भी बँटवारे के दुःख से अपने मकान पर अपने अधिकार का सुख ज्यादा था। मैं और मेरा भाई दोनों अपने-अपने मकानों को अपनी सुरुचि से सजाने सँवारने लगे।
मैंने मकान को घर बनाना शुरू किया। सभी सदस्यों को एक सी छत दी। एक सा आँगन दिया। एक से दरो-दरवाजे दिए। उधर भाई ने अपने मकान की मुंडेर पर धर्म-ध्वजा फहराई। दरवाजे पर नाम- पट्टिका लगवाई। बाहरी दीवारों को रंगो से सजाया। हिसंक- कुत्तों को मुख्य द्वार पर बाँधा। मकान के एक-एक पत्थर को खून का स्वाद चखाया। परिणामतः बोलने वाले लोग पत्थर हो गए और कुछ पत्थर उनकी जुबान बोलने लगे।
हालाँकि मेरे घर में भी कुछ पथरीले लोग थे, उनकी भी जिद अपनी नेम- प्लेट पर अपना झंडा फहराने की थी। किन्तु हमने ऐसे उद्दंड बच्चों की नहीं सुनी और परिवार को उसी बूढी लाठी के सहारे चलाया, जिसे इन उद्दंडीयों ने असमय तोड़ दिया था।
कुल मिलाकर मेरा मकान घर बन चूका था। उधर भाई का मकान फिर से दो टुकड़ो में टूट गया था। हम अपने घर में सीमित साधन, सुविधाये और संसाधनों की बदौलत अनेकों क्षेत्रों में खुद के पैरों पर खड़े होकर दौड़ रहे थे। भाई अपनी ईर्ष्या और अज्ञान के चलते तहखानों में लोहा, पत्थर जमा कर हवा में उड़ने की कोशिश कर रहा था। यदा-कदा छत से पत्थर भी फेंकता, कभी कुत्तों को पिछवाड़े से घर में दाखिल करता। हम भी तदनुरूप, पत्थरों की वापसी या कुत्तों का शिकार कर लेते थे। ये सब सालों से चल रहा था। ना वह सुधरता था, ना हम बौखलाते थे। अन्ततः नुकसान उसका ही होता था। क्योकि वह मकान को घर नहीं बनाना जानता था। वह अपनी खिड़कियां बंद रखता था। वह अपनी चोखट पर संदेह करता था। वह अपने उजालों को कैद करता था। लेकिन हम अपनी खिड़कियां, दालान, झरोखें, सब खुले रखते थे। बस अपने दरवाजे पर मुस्तैद रहते थे ।छतों के निगेबान रहते थे। किसी भी कुचेष्ठा का जबाब देकर घर- परिवार के साथ खेलते कूदते रहते थे।
कुछ दिनों से मेरे मकान की रंगाई पुताई सबको रिझाने लगी है।मुझे अपने मकान को ऊँचा और चमकीला बनाने की धुन सवार है। मालिकाना अंहकार का भी अपना नशा है।इस नशे के चलते भाई यानि पड़ौसी की हर हरकत नागवार गुजर रही है। उससे निपटने का मन बना लिया है। उसे दुश्मन मान लिया है। उसके नक्शे-कदम पहचान लिए है। हम भी अब खिड़कियां बंद रखेंगे। हवा का प्रवेश निषेध रखेंगे। आँगन में अलग- अलग चूल्हे बनाएंगे। छतों पर पत्थर जमा करंगे। दीवारों पर अपनी पंसद का रंग पोतेंगे। दरवाजे पर चेतावनी लिखेंगे “कुत्ते से सावधान”। अब हमे अपने मकान की कीमत बढ़ानी है ,भले ही इसकी कीमत में घर को फिर से मकान बनाना पड़े …फिर मकान तो ईंट पत्थरों का ही होता है ना।..
रास बिहारी गौड़
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