-निरंजन परिहार
सपनों के शहर में सपने मर रहे हैं। सबसे खतरनाक होता है आशाओं का मर जाना, लेकिन वे भी मर रही है। इसीलिए लाखों लोग कोरोना संकटकाल में मुंबई से पलायन कर गए हैं। लेकिन यह शहर मरझा भले ही गया हो, पर जैसे ही खुलेगा, तो फिर खिलेगा और फिर निखरेगा, भरोसा रखिए।
अरब सागर की पछाड़ मारती लाखों लहरों से अपने किनारों को सहेजने की क्षमता रखनेवाला मुंबई, सदियों से सब कुछ सहन करता रहा है। सुख के सावन से लेकर दुख के दावानल तक, और नश्वरता की निशानियों से लेकर अमर हो जाने के अवशेषों तक, अरब सागर सबको अपनी सतह में सहेजता हुआ मुंबई के किनारों पर हिलोरें लेता, जस का तस जिंदा है। अनंतकाल से ऐसा ही होता रहा है। आप और हम जब नहीं थे, तब भी और नहीं रहेंगे, तब भी ऐसा ही रहेगा, लगभग अगले प्रलय तक, समय के अंत तक। इसीलिए सागर जैसे अनंत साहस वाले मुंबई की जिंदगी हर बार पटरी पर आ ही जाती हैं।
हम देख रहे हैं कि लॉकडाउन में लोगों को लगातार लील रहा कोरोना मुंबई में अपने विकराल स्वरूप में हैं। स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हो रही हैं। चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई है। अस्पतालों में जगह नहीं है और एंबुलेंस भी कम पड़ रही हैं। बीमार बढ़ रहे हैं, मरनेवालों का आंकड़ा अटक नहीं रहा और लाशें अस्पतालों की गैलरी में पड़ी रहने को मजबूर हैं। सरकारी और निजी अस्पतालों में जगह ही नहीं है। बेड भरे हुए हैं। बड़े से बड़े व्यक्ति के लिए भी, किसी भी कीमत पर, आईसीयू में भी कोई बेड आसानी से उपलब्ध नहीं है। मंत्री, आईएएस, आईपीएस, अफसर व कर्मचारी भी कोरोना की चपेट में हैं। रोज 1500 के हिसाब से बढ़ रही मरीजों की संख्या मुंबई में इस सप्ताह 50 हजार के करीब पहुंच जाएगी। हालात डरावने हैं और जीवन खतरे में। लोग लाचार है। सरकार बेबस और प्रशासन पस्त। हर चेहरे पर हैरानी और चारों तरफ परेशानी के निशान। इसीलिए, करीब 35 लाख से ज्यादा लोग मुंबई छोड़कर जा निकल गए हैं। जो बचे हैं, वे भी जाना चाहते हैं। डर ऐसा है कि सवा दो घंटे बंद हो जाए, तो भी कोहराम मच जाए, वे लोकल ट्रेनें सवा दो महीने से पूरी तरह ठप है। लगने लगा है कि मुंबई मौत के मुहाने पर है। राजनीतिक संवेदनहीनता ने हर किसी को भीतर तक मरोड़ कर रख दिया है। गनीमत है कि जिस खाकी वर्दी को कोसने की हमें आदत पड़ चुकी है, वह बहुत ही साहसिक तरीके से काम कर रही है। खद्दरधारियों के मुकाबले खाकीधारियों की सेवा के पराक्रम का प्रमाण यह है कि, संकटकाल में सेवा करते 25 पुलिसवाले हमारे लिए कुर्बान हो गए हैं, और 2000 से ज्यादा पुलिसवाले संक्रमण के शिकार है। करीब 500 से ज्यादा चिकित्साकर्मी कोरोना की चपेट में हैं, तो कुछ के मरने की खबर भी है। धन्यवाद उन्हें कि फिर भी वे निडरता के साथ हमारे रक्षण और संरक्षण के लिए लड़ रहे हैं।
लोग कह रहे हैं कि लॉकडाउन ने मुंबई को मार दिया है। कोरोना से मनुष्य ही नहीं, उद्योग भी मर रहा है। व्यापार मर रहा है, रोजगार मर रहा हैं। सिनेमा मर रहा है, संवाद मर रहा है। अस्पतालों में अबोध और बेबस मर रहे हैं। जो बचे हैं, उनकी इस शहर के प्रति संवेदवनाएं मर रही हैं। सवाल यह है कि जो शहर लगातार तार तार होकर अपनी ही लाश को ढोता हुआ स्वयं ही जब शव का स्वरूप धरने की राह पर हो, वह औरों के सपने सहेजने के अपने शौक को कैसे जिंदा रख सकता है! सो, सपने मर रहे हैं और सपने देखनेवाले मर रहे हैं। मर रही है लोगों की आशाएं, जिन्हें वे पोटली में बांध कर गांव से अपने साथ मुंबई लेकर आए थे। फिर भी, लाखों लोगों की उम्मीदों के आसमान में यह शहर अब भी सपनों का शहर है। यह उम्मीद इसलिए है, क्योंकि हमने पहले भी देखा है कि देसी धुन और परदेसी संगीत के किसी रिमिक्स की तरह, हर हादसे के बाद, यह शहर अपनी संगीतमयी रफ्तार में बहने को फिर से तैयार हो जाता है। सो, इंतजार कीजिए, लॉकडाउन की लकीरों के पार मुंबई एक बार फिर से सपनों के शहर के रूप में दुल्हन की तरह सजती – संवरती दिखेगी। क्योंकि इस शहर की असली तासीर यही है!
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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