अभी तो बात केवल कुवैत की है, यदि पूरी दुनिया में कितने ही भारतीय काम कर रहे हैं। अगर दूसरे देशों में भी संकट बढ़ा और इसी तरह विदेशियों को देश निकाला मिलने लगा तो संकट गहरा हो जायेगा, भारतीयों के लिए एक अंधेरा छा जायेगा और सरकार के सामने नई चुनौती खड़ी हो जाएगी। पहले ही ‘वंदे भारत’ अभियान के तहत केंद्र सरकार विदेशों में फंसे लाखों भारतीयों को अपने घर पहुंचा चुकी है। कुवैत जैसे हालात दूसरे देशों में भी बने तो उस चुनौती से कैसे निपटा जाएगा? बेरोजगारी की मार को झेल रहा देश कैसे इनको रोजगार एवं साधन-सुविधाएं देगा? क्योंकि यहां सवाल सिर्फ भारतीयों को अपने देश तक लाने का ही नहीं, सवाल उनके रोजगार का भी रहेगा। कोरोना महामारी पहले ही रोजगार पर भारी पड़ रही है, ऐसे में विदेशों से आने वाले भारतीयों के लिए नई तैयारियां करनी होंगी। न तो चुनौती छोटी है और न हमारे संसाधन इतने बड़े हैं। गरीबी में आटा गिला होने वाली कहावत एक गंभीर स्थिति बन कर प्रस्तुत होगी।
भारत अनेक तनावों से घिरा हैं। एक तरफ चीन, नेपाल एवं पाकिस्तान के साथ हमारी युद्ध की स्थितियां एवं सीमा विवाद गहरा गया है तो दूसरी ओर अनलाॅक होने पर देश में कोरोना संक्रमण की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है, कुवैत से आई खबर भी चिन्ता का सबब बन रही है। कुवैत की मौजूदा कुल आबादी 43 लाख है। इनमें कुवैतियों की आबादी 13 लाख है, जबकि प्रवासियों की संख्या 30 लाख है जिनमें भारतीय लगभग 8 लाख है। इन भारतीयों का एक साथ भारत लौटने की स्थिति का बनना भारत सरकार के लिये चिन्ता का बड़ा कारण बनना स्वाभाविक है। बीते चार महीने से केंद्र से लेकर तमाम राज्य सरकारें कोरोना से लड़ते-लड़ते थकती हुई निस्तेज नजर आ रही हैं। सरकारों का खजाना भी खाली होने लगा है। कर्मचारियों को वेतन देने के भी लाले पड़ने लगे हैं। दौर जितना विकट है, उससे बाहर निकलने के रास्ते भी उतने ही संकटग्रस्त है। केन्द्र सरकार लगातार आम लोगों के लिए अजनबी ”आशा“ बनने की कोशिश करते हुए प्रयत्नशील बनी हुई है। न मालूम कोरोना महाप्रकोप की मुक्ति जब हो जाएगी तब आशा क्या रंग लाएगी? अनुभव यह बताता है कि हर चीज के अवसर आने से पहले जितनी चर्चाएं होती हैं, जितनी आशाएं होती हैं, वह घटित होने पर अपेक्षाआंे के अनुरूप नहीं होती।
कोरोना संक्रमण दौर में तमाम प्रयत्नों एवं योजनाओं में कुछ भी ऐसा नहीं घटा, जिसने सारे राष्ट्र को प्रफुल्लित कर दिया हो। अभी तक हमारे राष्ट्रीय जीवन की कोई एक ऐसी धारा नहीं बनी, जो खुशी और समृद्धि के सागर की ओर जा रही है। वह तो एक मरुस्थल में बिखरे हुए टीलों की तरह बनी हुई है, जो इधर-उधर उड़कर फिर वहीं आ जाते हैं। यह कोरोना महासंकट स्वास्थ्य अनिश्चितता का, राजनीतिक पतन का, प्राकृतिक विपदाओं का और दुर्घटनाओं का है, जो पीड़ा और कई घाव दे रहा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार अपनी नित-नयी लुभावनी एवं सकारात्मक योजनाओं एवं घोषणाओं में कोई कमी नहीं रख रही है। आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियान तो आज की जरूरत के अनुरूप है ही लेकिन इसे भी जनभागीदारी, साफ नियत से ही सफल किया जा सकेगा। केंद्र और राज्य सरकारें तमाम मुद्दों पर आपसी विचार विमर्श करके हल तलाश रहे हैं लेकिन कुवैत से आ रही खबर परेशानी को बढ़ाने वाली है। विदेश से आने वालों के लिए सरकार को नई योजना बनानी होगी, रोजगार के अवसर प्रस्तुत करने होंगे, उनकी क्षमताओं एवं कौशल का उपयोग राष्ट्र-निर्माण एवं आर्थिक विकास में करना होगा। जरूरी है इसके लिए सबसे पहले तो इन लोगों का डाटा तैयार करना चाहिए। इसके बाद श्रम मंत्रालय को कोरपोरेट घरानों, उद्योगपतियों एवं व्यापारिक संस्थानाअें को साथ में लेकर विदेशों से आने वालों के लिये समग्र रोजगार योजना तैयार करनी चाहिए। लाकडाउन के बाद लाखों की संख्या में मजदूर देश के प्रमुख बड़े शहरों से पलायन करके अपने गांव चले गए हैं। उद्योग धंधे शुरू करने के लिए मजदूर नहीं मिलने की समस्या भी सामने आ रही है। ऐसे में दूसरे देशों से आने वाले मजदूरों को यहां समायोजित करने की योजना को अमलीजामा पहनाया जाना चाहिए।
विदेशों से लौटने वाले भारतीयों को हमें सकारात्मक रूप में लेना चाहिए। उनकी योग्यता, कार्यकौशल एवं अनुभवों को भारत को आत्मनिर्भर बनाने के संकल्प के साथ जोड़ना चाहिए। ये संकट का दौर है और हमें अपने पैरों पर खड़े होकर दिखाना होगा। ‘मेक इन इंडिया’ जैसे नारों को हकीकत में बदलने का भी ये अच्छा मौका बन सकता है। चीन के वर्चस्व को तोड़ने एवं भारत को एक महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का यही समय है। लेकिन इसके लिये केन्द्र सरकार को ठोस रणनीति बनानी होगी। नारे भाषणों में तो आत्म निर्भर भारत, मेक इन इंडिया एवं लोकल का वाकल अच्छे लगते हैं लेकिन उनसे रोजगार, उत्पाद, आर्थिक उन्नति तभी मिलेगी जब ये नीतियां एवं योजनाएं कागजों से निकलकर जमीन पर उतरेगी। कोराना और चीन के संकट से उपजी समस्याओं का समाधान हमारी पहचान बनाएगा, हमारा आत्मगौरव लौटाये।
लोग कहते हैं कि हमारा आर्थिक तंत्र भी अभी तक डांवाडोल नहीं है, सत्ता पर काबिज शीर्ष नेतृत्व के मनसूबों पर भी शक नहीं किया जा सकता एवं हमारे लोकतंत्र की जड़ें भी मजबूत हैं, पर उन जड़ों से उगने वाले पेड़ पर कांटे ही कांटे हैं, फल-फूल नहीं दिखाई देते। लेकिन हमें इन कांटों में गुलाब खिलाने ही होंगे, ‘आपदा को अवसर’ के रूप में बदलना ही होगा। ये हमारी इच्छाशक्ति, मनोबल एवं जिजीविषा पर निर्भर करेगा। आने वाले एक साल में यदि राजनीतिक दल बेवजह की राजनीति ना करने की ठान लें तो कोई कारण नहीं कि हम कोरोना संकट के रूप में आई इस महाआपदा को अवसर में ना बदल सकें। हम अपने आप से पूछे-‘अंधेरे की उम्र कितनी?’ तो हमारा उत्तर होना चाहिए – ‘जागने में समय लगे मात्र उतनी।’ अंधेरा कहां है? जनता की आंखों में या नेताओं की दृष्टि में? वह जहां भी है, हमारा आत्म-विश्वास, राष्ट्रीयता की भावना एवं स्वदेशी का भाव ऐसी प्रेरणाएं हैं उसे उजाले से भरने की, प्रकाश में सत्य को देखने की। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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