प्रेम आनंदकरइस पोस्ट के साथ आप जो यह खबरों का फोटो देख रहे हैं, वह हमारे बच्चों के भविष्य की भयावह तस्वीर पेश करने के लिए काफी है। वाकई में यह बच्चों का खेल नहीं, जानलेवा जाल है। सोशल मीडिया के नाम पर मोबाइल पर इतने सारे गेम और धोखाधड़ी वाले एप उपलब्ध हैं, जिनके जाल में बच्चे नहीं, अनेक बड़े-बड़े भी फंस रहे हैं। तकलीफ तो तब होती है, जब अनेक समझदार और पढ़े-लिखे लोग इन वीडियो और आॅनलाइन गेमों में दिन-रात उलझे रहते हैं। जिन माता-पिता को अपने बच्चों को इन चीजों से दूर रखना चाहिए, वह खुद ही यदि इनमें उलझे रहते हैं, तो कैसे बच्चों को रोक सकते हैं। सबसे ताज्जुब की बात तो यह है साहब, अनेक माताएं घरेलू कामकाज निपटाने के लिए किड्स वीडियो चलाकर मोबाइल अपने बच्चों के हाथों में थमा देती हैं। इसके बाद वे सुकून से कामकाज निपटाती हैं। आग लगे, ऐसे सुकून को। सवाल यह है कि क्या पहले माताओं ने अपने बच्चों को नहीं पाला। उन्होंने भी घर के कामकाज खूब किए और बच्चों को भी अच्छी तरह पाला। उनके समय तो कोई मोबाइल नहीं था, फिर भी बच्चों की बेहतर तरीके से परवरिश की। क्या वर्तमान संचार क्रांति के दौर में बच्चों को बहलाने के लिए मोबाइल ही एकमात्र साधन रह गया है। क्यों नहीं, बच्चों को अनेक तरह के छोटे-छोटे खिलौने लाकर खेलने में लगाया जा सकता है। मुझे ख्यातनाम कवि और टीवी कलाकार शैलेश लोढ़ा की वह पंक्तियां याद आती हैं, जिसमें वे कहते हैं कि यदि बच्चों का भविष्य बचाना है, तो उनके हाथ से मोबाइल तुरंत छीन कर किताबें थमा दीजिए। बच्चों का भविष्य केवल किताबों में ही निहित है। माना कि तेजी से बदलते और बढ़ते प्रतिस्पर्धी युग में बच्चों का सर्वांगीण विकास होना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है कि उन्हें गलत राह पर धकेल दिया जाए या इस रास्ते पर जा रहे बच्चों को रोका ही नहीं जाए। किंतु तकलीफ तो इस बात की है कि आज हर व्यक्ति मोबाइल में इतना व्यस्त है कि उसे पास बैठे अपने परिजन, नाते-रिश्तेदार, मित्र से बात करने की फुर्सत तक नहीं है। यह वीआईपी कल्चर भी हो गया है। किसी नेता के पास जाओ, तो वह आपसे बात कम करेंगे, मोबाइल पर ऐसे डूबे रहेंगे, जैसे कोई बहुत बड़ी डील कर रहे हों या देश का सारा बोझ सोशल मीडिया के माध्यम से वही उठा रहे हों। हमारे घर कोई रिश्तेदार या मित्र आ जाते हैं, तो हम उनके रहने तक कई बार मोबाइल खोलकर देखते हैं। जब बड़ों का यह हाल है, तो बच्चों से क्या अपेक्षा की जा सकती है। इसीलिए तो एक और ख्यातनाम कवि संपत सरल कहते हैं कि देश के अधिकांश युवा फ्री वाई-फाई के चक्कर में मोबाइल टाॅवरों के नीचे बैठे रहते हैं। यानी देश के हर युवा के हाथों को काम मिल गया है। क्या स्थिति हो गई है हमारे देश और समाज की। जिन हाथों को काम-धंधे में लगना चाहिए, वह मोबाइल पर समय खराब कर रहे हैं। अब भी हम चेत जाएं, कहीं ऐसा ना हो कि मोबाइल के चक्कर में हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी का भविष्य पूरी तरह चैपट हो जाए। कहीं ऐसा ना हो कि आॅनलाइन गेम और वीडियो गेम के दुष्प्रभाव से हमारा ही कोई बच्चा जीवनलीला खत्म करने पर उतारू हो जाए। मोबाइल का नशा गंभीर से गंभीर मादक पदार्थों के नशे से भी ज्यादा घातक होता जा रहा है। अनेक लोग तो मोबाइल नशे के इस कदर आदी हो गए हैं कि यदि वे एक-एक मिनट में मोबाइल खोलकर नहीं चलाएं, तो उन्हें छटपटाहट होने लगती है। मोबाइल और सोशल मीडिया दरअसल सदुपयोग करने के लिए बने हैं, लेकिन इनका सदुपयोग तो महज दो-चार प्रतिशत हो रहा है, बाकी तो दुरूपयोग ही हो रहा है। इसके बावजूद भी नहीं चेते, तो गंभीर नतीजे भुगतने से हमें कोई रोक नहीं सकता है।