वैचारिकी-भस्मासुरी परम्परा

रास बिहारी गौड़
प्रश्न मेजर ध्यान चंद के सम्मान का नहीं है ..वह तो पहले दिन से ही भारतीयों के मानस पर उसी तरह अंकित है जैसे कुल गौरव को गाथायें लोक में सदियों सदी तक गाई जाती रही हैं..। समय-समय पर सरकारों ने उसे याद करते हुए खेलों के प्रति अपनी सतही जागरूकता भी दिखाई है ..मसलन ध्यान चंद के जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाना या दस लाख रुपए और मानद पत्र सहित खेलो का लाइफ़ टाइम ध्यानचंद अवार्ड घोषित करना (यह सब कोंग्रेस सरकार द्वारा किए गये कार्य है..) एक बार फिर खेल रत्न को ध्यान चंद के नाम से किया जाना उसी काम को आगे बढ़ाना है ..।
लेकिन दृष्टि अवलोकन का नैसर्गिक नियम है कार्य संपदान के हेतु को देखना..। राजीव गांधी का नाम हटाकर ध्यान चंद को प्रतिस्थापित करना ,न केवल राजनीतिक दुराग्रह से पीड़ित नज़र आता है वरन ध्यानचंद सरीखे गौरव को राजनीति के कीचड़ में घसीटने की कुत्सित मनोवृति भी दिखती है…। हाँकी या ध्यान चंद के लिए दूसरे बेहतर वैकल्पिक सम्मान की खोज की जा सकती थी . जो इससे बड़ा या श्रेयकर हो सकता था…जैसे कोंग्रेस ने अपने शासन काल में सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया..यह सरकार ध्यानचंद को देकर ज़्यादा क्रेडिट ले सकती थी..।किंतु राजीव गांधी के नाम को रेप्लेस करने का हेतु विशुद्ध बदले की राजनीति है..। तर्क चाहे जो हो .सारे उनके अपने कामों से ही कट जाते हैं..। लाख बचकाना व्यहवार कर लीजिए लेकिन राजीव गांधी समय के खाते में दर्ज है.।माना वे बीत गए ..जैसे एक दिन आप भी बीत जाओगे..।हम बीते समय को नकार कर अपना समय नहीं गढ़ सकते..।
*लोकतंत्र या किसी भी सभ्य समाज की अस्मिता तब तक ही अनुकरणीय है जब तक वह पूर्ववर्तीओं का सम्मान और समकालिनो से सामना करें…लेकिन यहाँ तो दोनों को पूरी तरह मिटाने की क़यावद चल रही है ..।
हम इस बार इसलिए व्यथित या परेशान है कि मध्य युगीन भारत को कोसते हुए हम वैसा ही भारत बना रहे हैं..।हमारे पड़ौसियों ने यह सब पहले किया है -तालिबान ने बुद्ध की सारी प्रतिमाएँ तोड़ दी.., सोवियत संघ लेनिन की मूर्तियाँ ढहा दी गई .., पाकिस्तान तो अपने पूर्ववर्ती विपक्षी शासकों को तो खुले आम फाँसियाँ दी गई ..। जबकि सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका अधिकतम दो कार्यकाल की शर्त के बावजूद आज भी लिंकन, वाशिंगटन, केनेडी, निक्सन, सहित सभी राष्ट्र्ध्यक्षों को बाद वाले बेहतर सम्मान देते रहे हैं..।फ़्रांस में बिस्मार्क सर्वकालिक आराध्य है ..। साथ ही जर्मनी में हिटलर, इटली के मूसोलनी,रसिया में स्टालिन राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रतीक होने बावजूद गर्व के वाहक नहीं हैं..क्योंकि ये अपने पूर्व-वर्ती शासकों को ख़ारिज कर सत्ता में बने रहना चाहते थे …हश्र दुनिया के सामने हैं …कौन सा देश कहाँ खड़ा ..?
*एक बड़ा वर्ग इस सच हमेशा अनजान रहता है कि धर्म और राष्ट्रवाद का अतिरिक्त मीठा घोल हमारे शोषण के हथियारों को उतरोत्तर पैना करता चला जाता ..।*
हम हज़ारों साल पुरानी संस्कृति वाहक हैं ..। यह सैकड़ों धर्म, सत्ता, समाज, पनपे ..हमने सबको स्वीकार..सबका सम्मान किया..इसी करना अब तक बने हैं..।
ज़रा सोचो – हर नई प्द्स्थापित सत्ता पुराने निशान मिटाने पर लगी होती आज हम कितने दरिद्र रहे होते…। आज हमारे कोणार्क मंदिर भी है..खजुराहो के भित्ति चित्र भी ..तो ऐबक मीनार और ताजमहल का अजूबा भी है ..।हमनें अशोक से लेकर अकबर तक…लॉर्ड कर्ज़न लेकर माउंट बेटन तक..नेहरु से लेकर मोदी तक सबको सहेजा है…।
शहर गलियों के नाम बदलते बदलते जब आप अंधे विरोध में अपने ही लोकतांत्रिक नायकों को खंडित करोगे…तब याद रहे यही परम्परा कल तुम्हारे लिए भस्मासुर हो जाएगी…। कोई दूसरा अतिवादी आएगा और वह तुम्हारे नाम को अन्य लोकप्रिय प्रतीक से पोत देगा

*रास बिहारी गौड़*

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