वैचारिकी-आस्थाओं के प्रतीक

रास बिहारी गौड़
भारतीय घरों के पूजाघरो में अनेक देवी देवताओं के चित्र लगे होते हैं। यथासमय वे अपने-अपने इष्ट के साथ सभी देवों ध्यान- मनन करते हैं। कभी किसी कथा से, कभी आरती से तो कभी मौन रहकर ..। इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी देवी-देवताओं का अनेकत्व आड़े नहीं आता। जैसे माँ की आराध्य देवी दुर्गा हो, पिता शंकर के भक्त रहे हों, किसी सदस्य की विष्णु में विशेष आस्था हो सकती है ,तो कोई लक्ष्मी या सरस्वती का भक्त हो सकता है ..और घर को कोई सदस्य इन में से किसी को भी नहीं मानता हुआ दिख सकता है ..। बावजूद इसके पुरे घर में यह विश्वास बिराजता है कि पूजा घर में विराजित आस्थाएँ हमें शांति, समृद्धि और सदविवेक देती हैं..।इसी का परिणाम रहा कि दुनिया में हम या हमारा यह धार्मिक आचरणस्वीकार्यता के बोध से निर्मित हुआ..। हम धर्म या पूजा पद्धतियों को लेकर इतने सहज रहे कि न केवल अपने धर्म या घर के लोगों को अपनी निज आस्थाओं के लिए स्वतंत्र रखा वरन दूसरे धर्म यथा ईसाई , इस्लाम, बौद्ध आदि को भी पूरा मान देते रहे। हो सकता है इसके कुछ दुस्परिणाम रहे हों किंतु हम धार्मिक सत्ता के रूप में समृद्ध एवं श्रेष्ठतर होते गये।
इधर के वर्षों में हम यह स्वीकारोक्ति या आचरण से च्युत हो रहे हैं या किए जा रहे हैं।हमारी आस्थाएँ हिंसक होने हद तक एकाकी हुई जा रही हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि एक पूरी पीढ़ी दूसरे धर्मों से की गई घृणा को अपने अस्तित्व से जोड़कर देखने लगी है । विभिन्न माध्यमों से उसके पास घृणा के अनेक तर्क मौजूद हैं। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हनुमान चालीसा को लेकर हम देख ही रहे हैं।
यह वही हनुमान है जो हमारे पूजाघरों में राम जी के चरणों बैठे हैं या उन्हें काँधे उठाए उड़ रहे हैं या फिर सीना चीरकर भीतर बसी राम की मोनोरम मूरत दिखा रहे हैं।
राम की वह मनोरम मूरत जो पूजाघरों में सौम्यता, शालीनता और सौंदर्य का सबसे बड़ा मानक बनी रही है। आज वही हनुमान या राम रौद्र रूप में शत्रु का संहार करते हुए परोसे जा रहे हैं । राम कथा में करुणा, त्याग, दया, मानवीयता के रूपक छोड़कर युद्धोन्मादी चरित्र को गाया जा रहा है।यह कितना सही या ग़लत है इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि वे हमारे भीतर क्या रोप रही हैं।
राम या हनुमान की बदली हुई तस्वीर पूजाघरो की निर्मलता या स्वीकार्यता को खा रही है और इस तरह सदियों सींचे गए हमारे धार्मिक आचरण को भी निगल रही है।
पृथ्वी को जीने योग्य बनाने के लिए धर्म या आस्था की ज़रूरत है उसे उन्माद की भट्टी में झौंकने के लिए तो सत्ता की भूख ही काफ़ी है। अतः आस्थाओं प्रतीकों से उनकी पहचान मत छिनिए ,वे हमें जीवन सूत्र सौंपती हैं।

रास बिहारी गौड़

error: Content is protected !!