कभी कभी
मुझे ये खयाल
आता है
कि …
किंचित ही सही
शब्दों को सजाने का
गर कौशल न आता
तो क्या होता !
मेरा ये जीवन …..
मानो होता कोई बंजर
जमीन का ऐसा एक टुकड़ा
जहां न पैदा होता
अन्न का एक दाना
न ही
जंगली फूल ही खिलते हैं …..
नीरस होता
जीवन
जैसे तपता रेगिस्तान
दूर दूर तक पसरी खामोशी
मीलों सन्नाटा …..
या फिर
दो-चार ठूंठ लिए
बियाबान में
अकेला खड़ा
कोई सूखा पेड़।
मगर …
शब्दों ने
भर दिये
मेरे जीवन में यकीनन
इंद्रधनुषीय रंग
इस तरह
मेरे जीवन को
अर्थपूर्ण दिशा देने हेतु
शब्दों की भूमिका
का शुक्रगुजार हूं मैं …..। 000
श्याम कुमार राई
‘सलुवावाला’