भगवान जाम्भोजी के 489 वां महानिर्वाण दिवस विशेष
धोरीमन्ना @श्रीराम ढाका / भगवदावतार, सिद्ध महापुरुषों ने बार-बार इस धरती पर आकर लोगों जीव और ईश्वर का रहस्य समझाया है ।लाखों-करोड़ों लोगों ने उनकी बात मानकर अपने जीवन का उद्धार किया भी है। अधर्म का उन्मूलन और धर्म की स्थापना के लिए भगवान बार-बार धरती पर अवतार लेते हैं।ऐसे ही इस कलयुग में जीवन युक्ति और मरने पर मुक्ति का रहस्य समझाने के लिए भगवान विष्णु ने जम्भेश्वर नाम धारण करके अवतार लिया था और यह उद्घोष किया कि ईश्वर प्राप्ति के अनेक मार्ग है – ‘भाग परापति करमां रेखां,दरगे जबला जबला माघों।’ -हमारे अच्छे और बुरे कर्मों से ही हमारे भाग्य का निर्माण होता है और उसी के अनुसार हमें फल मिलता है, इसलिए कर्म ही प्रधान है। सदैव बुरे कर्मों से डरो और शुभ कर्म करते हुए ईश्वर आराधान करो, ईश्वर की प्राप्ति के अनेक मार्ग है इसलिए दूसरे के मार्ग की निंदा और वाद-विवाद करना व्यर्थ है।
गुरु जाम्भोजी का उपदेश सार्वभौमिक है। उन्होंने सत्य का दिग्दर्शन कराया है। सत्य को नजदीक से जानने,पहचानने, अनुभव करने, यहां तक उसे छूने और नित्य के व्यवहार में लाने की कला सिखाई है। असत्य से ईश्वर साक्षात्कार नहीं हो सकता है, क्योंकि सत्य ही साक्षात ईश्वर है। जीवन में सत्य की स्थापना, बाहर-भीतर से एक, व्यवहार में बनावटीपन नहीं, सरलता, सादगी,संयम उन्हें बहुत प्रिय है
श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान अपर नाम गुरु जांभोजी का जन्म सन 1451 ई.(संवत 1508) में राजस्थान के नागौर जिले के पीपासर गांव में हुआ। इनके पिता का नाम लोहटजी था। वे जाति से पंवार राजपूत थे। इनकी माता का नाम हंसादेवी था। लोहटजी द्वारा भगवान विष्णु की कठोर तपस्या के बाद वरदान स्वरुप भगवान ने इनके घर अवतार लेना स्वीकार किया। ये अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे और इन्हें अधेड़ावस्था में प्राप्त हुए थे। गुरु जांभोजी के जन्म से ही अनेक चमत्कारिक घटनाएं इनके जीवन से जुड़ी हुई है।इनकी पलकें नहीं पड़ती थी, इनके शरीर की छाया नहीं पड़ती थी, शरीर से हर समय अलौकिक सुगंध निकलती थी, यह पीठ के बल सोते नहीं थे, खाते पीते नहीं थे निराहार थे, प्रारंभ के सात वर्ष के लगभग मौन अवस्था में रहे। ऐसे लक्षणों के कारण चिंतित मां बाप ने इन्हें स्वस्थ करवाने के लिए एक तांत्रिक को बुलाया, उसने अनेक प्रपंच रचे किंतु सब व्यर्थ गए। तांत्रिक ने गुरु जांभोजी की महिमा को जान लिया और इसके बारे में लोहटजी और हंसादेवी को बताया की आपका बालक साधारण नहीं है यह कोई अवतारी पुरुष है। सात वर्ष की अवस्था में इन्होंने तांत्रिक को संबोधित करते हुए सबदवाणी का प्रथम शब्द सुनाया जो बहुत गंभीर अर्थ लिए हुए हैं। इसके बाद 27 वर्ष तक इन्होंने गाय चराई तथा अनेक चमत्कार लोगों को दिखाए। माता-पिता के देहावसान के बाद इन्होंने सब कुछ दान करके गृह त्याग दिया और अपने गांव से चार कोस उत्तर पूर्व में बीकानेर जिले में स्थित समराथल नामक स्थान पर आकर विराजमान हो गए जहां 34 वर्ष की अवस्था में सन् 1485 ई. (संवत 1542) में इन्होंने बिश्नोई पंथ की नींव रखी। जहां 51 वर्ष तक लगातार इन्होंने ज्ञानोपदेश दिया। इस दौरान भारत के अनेक स्थानों के अलावा अफगानिस्तान से लेकर श्रीलंका तक की इनकी धर्मयात्रा का भी वर्णन मिलता है। लाखों की संख्या में जनसाधारण के अतिरिक्त बहुत से शासक वर्ग के लोग और विशिष्ट व्यक्ति भी अनेक प्रकार और कारणों से प्रभावित होकर गुरु जांभोजी के संपर्क में आए तथा इनसेसे सदप्रेरणा ग्रहण करके लोकमंगल के कार्यों में प्रवृत्त हुए।इनमें प्रमुख थे बादशाह सिकंदर लोदी, नागौर के सूबेदार मोहम्मद खां नागौरी, मेड़ता के राव दूदा, जैसलमेर के रावल जेतसी, जोधपुर के राव सांतल, मेवाड़ के राणा सांगा और झाली राणी, बीकानेर के रावण लूणकरण आदि। गुरु जांभोजी ने लोगों को युक्ति पूर्वक जीवन जीते हुए मुक्ति का सहज मार्ग बताया।
इनके द्वारा निर्देशित 29 नियमों की आचार संहिता इस प्रकार है-
1.तीस दिन तक जन्म सूतक रखना, 2.ऋतुकाल के पांच दिन स्त्री का गृहकार्यों से पृथक रहना, 3.प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करना, 4.शील का पालन करना, 5. संतोष रखना, 6.बाहरी और आंतरिक पवित्रता रखना, 7. दोनों काल संध्या करना, 8. संध्या समय आरती और हरि गुणगान करना, 9. निष्ठा और प्रेम पूर्वक हवन करना, 10. पानी, ईंधन और दूध आदि को छानबीन कर व्यवहार में लाना, 11.वाणी सोच-विचार कर बोलना, 12.क्षमा और दया धारण करनी, 13. चोरी, 14. निंदा,15. झूठ 16. वाद-विवाद का त्याग करना,17. अमावस्या का व्रत रखना, 18.विष्णु का जप करना 19. जीव दया पालनी, 20. हरा वृक्ष नहीं काटना, 21. काम-क्रोधादि विकारों को वश में रखना, 22.रसोई अपने हाथ से बनानी(भोजन शुद्ध,सात्विक और पवित्रता से बना हुआ), 23.थाट अमर रखना (पशुओं को कसाई के हाथ नहीं बेचना), 24.बैल को बधिया नहीं करवाना, 25.अफीम, 26.तंबाकू, 27.भांग, 28.मद्य-मांस और 29. नीले वस्त्र का त्याग करना।
15 वीं शताब्दी में अनेक महान विभूतियों का आगमन भारत भूमि पर हुआ, जिन्होंने भारत की पददलित, शोषित, भयाक्रांत और सोई हुई चेतना में नवजीवन का संचार कर दिया। उन्होंने आध्यात्मिक क्रांति के साथ-साथ अभूतपूर्व सामाजिक परिवर्तन भी किया। उन दिव्य पुञ्जों में श्री गुरु जंभेश्वर भगवान का नाम परम आदर के साथ लिया जाता है। आध्यात्मिक जगत में उनका उपदेश पर्यावरण चेतना के कारण अपना विलक्षण स्थान रखता है। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि प्राण देकर भी पर्यावरण की रक्षा करो। उनके द्वारा प्रवर्तित बिश्नोई पंथ उत्तर भारत पहला संत संप्रदाय है। पंथ में यह बातें विशेषता से प्रचलित है कि- ‘सिर सांटे रूंख रहे, तो भी सस्तो जाण’- ‘सिर कटवाकर भी अगर वृक्ष कटने से बचता है तो यह सौदा सस्ता है।’ ‘जांडी हिरण संहार देख, वहां सिर दीजिए’- ‘वृक्ष और वन्यजीवों को मरते-कटते देखकर उनकी रक्षा में अपने प्राण दे देने चाहिए।’ यह केवल निरा उपदेश और बातें ही प्रचलित नहीं है, पंथ के पिछले पांच सौ वर्षों के इतिहास में सैकड़ों लोगों ने इनके लिए अपना बलिदान भी दिया है। सन् 1730 ई. राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली ग्राम में वृक्षों की रक्षा के लिए 363 बिश्नोईयों ने सामूहिक बलिदान दिया। वृक्ष रक्षा के लिए यह विश्व का अद्वितीय बलिदान था। इस बलिदान स्थल पर उन शहीदों की याद में विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला लगता है। भारत सरकार ने वन्यजीवों की रक्षा करते हुए दो बिश्नोई नवयुवकों को मरणोपरांत शौर्य चक्र देकर भी सम्मानित किया है। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारें इन शहीदों के नाम पर पर्यावरण सरंक्षण के लिए काम करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को प्रतिवर्ष पुरस्कार देकर सम्मानित करती है आज के समय में परहित के लिए प्राणों की बाजी लगा देने वाले ऐसे उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
सन् 1536 ( मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी संवत 1593) को लालासर साथरी नामक स्थान पर गुरु जांभोजी ने स्वधाम गमन किया। इनका समाधि मंदिर इनके उपदेश स्थल समराथल के पास मुकाम में बना हुआ है जहाँ वर्ष में दो बड़े मेले लगते हैं जिसमें लाखों लोग इस जीवन जुगती, मुक्ति और प्रकृति के देव को नमन करने आते हैं।