हिंदू, इस्लाम, बौद्ध धर्म और कई अन्य परंपराओं में दुआ या प्रार्थना को सकारात्मक और पुण्यकारी कर्म माना गया है। किसी और के लिए दुआ करना या उनकी भलाई की कामना करना आमतौर पर निस्वार्थता और परोपकार का प्रतीक होता है। कर्म सिद्धांत के अनुसार, किसी के लिए शुभकामना या प्रार्थना करना एक सकारात्मक कर्म है, जो अच्छे फल देता है। यह एक अच्छे कर्म के रूप में जुड़ता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः जैसी प्रार्थनाएं दूसरों की भलाई के लिए की जाती हैं और इसे उच्च पुण्य कर्म माना गया है। इसी प्रकार इस्लाम में किसी के लिए दुआ करना यानि दूसरे के लिए अल्लाह से प्रार्थना करना इबादत का हिस्सा है और इसे एक नेक काम माना जाता है। तभी तो कहते हैं कि दुआ में याद रखना।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो दूसरों के लिए प्रार्थना करने से आपके भीतर सकारात्मकता और करुणा का विकास होता है। यह आपको मानसिक शांति और संतोष प्रदान करता है। जब आप दूसरों के लिए प्रार्थना करते हैं, तो यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के प्रवाह को बढ़ाता है, जो अंततः आपको भी लाभ पहुंचाती है। इन सब से भिन्न एक नजरिया मेरी जानकारी में आया तो मैं चकित रह गया। अध्यात्म के बारे में गहन जानकारी रखने वाली एक विदुशी ने बताया जब तक बहुत जरूरी न हो, किसी के लिए दुआ नहीं मांगे। उनकी मान्यता है कि जब हम किसी के लिए दुआ मांगते हैं, तो हमारे संचित पुण्य का क्षय होता है। उनका तर्क था कि जैसे हम अपने किसी प्रिय के लिए दुआ करते हैं कि मेरी उम्र भी उसे लग जाए, तो यह ऐसी ही कीमिया है कि हमारी उम्र दूसरे में षिफ्ट हो जाए। यह ठीक ऐसे ही है, जैसे हम किसी को दस रूपये दान में दें, तो हमारे कोश में दस रूपये की कमी होगी ही। मैं उनके नजरिये से सहमत नहीं हो पाया। लेकिन अब भी यह विचार आता है कि क्या आत्म कल्याण के इच्छुक व्यक्ति के वाकई किसी के लिए दुआ मांगने से उसके पुण्य में क्षय हो सकता है।