
1. बबा मुक्तानंद जी अपने गुरू नित्यानंद जी की आज्ञा से पूरे भारत की परिक्रमा कर रहे थे। केरल में उन्हें एक साधु मिला। उसका नाम शिव थणी थां । बाबा ने साधु विनम्रता पूर्वक सवाल किया कि मंत्र का क्या रहस्य होता है। शिवथणी बाबा बोले कि जा, मेरी जूती उठा कर ला। मुक्तानंद जी ने वैसा ही किया। बाबा ने फिर कहा – इसे कान के पास ले जा कर सुन। बस, यहीं विसमय हो गया। जूती में मंत्रों का उच्चारण हो रहा था। विरमित मुक्तानंद जी को उस साधु के शब्द सुनाई दिये – यह ह ैमंत्र की शकितं यह है । साधु के जप की शक है यह।। साधु के आस पास वाले पूरे वायुमंडल में मंत्र गूंजते हैं। ब्रह्म मुहूर्त में मंत्र की ध्वनि तरंगें हवा के साथ चलती है और उसे समय जो लोग ध्यान सुमिरन में बैठे होते हैं उनके मन को शीतल करती हैं।
2. मुक्तानंद जी तब सिद्ध बन चुके थे। एक दिन बम्बई से कोई बुद्धिजीवि उनके पास पहुंचां । वह कहने लगा कि म मंत्र आदि को नहीं मानता हूं। मुक्तानंद जी ने मुस्कराते हुए अपने सेवादार को कहा – इसे मेरे कमरे में ले जाओ। वह बु9िजीवि जैसे ही कक्ष में गया, खाली कमरे में आवाज गूंजी – इस कमरे की दीवारें भी मंत्र बोलती हैं। उसे चारों तरफ की दीवारों सें मंत्र सुनाई देने लगे। बेचारे बुद्धिजीवि की सारी बुद्धि वहीं झर गयी।
3. नागौर के गांव हरनावा की बात है। वहां किसी संत की शिष्या रानाबाई रहती थी। एक बार उपलों के लिए उसकी साथी स्त्री से ेहा संनी हो गई। यह उपला मेरा, यह तेरा – ऐसा था। झगड़ा। अब इसे कौन सुलझाये ।तब शिष्या लड़की ने कहा – उपला तोड़ा और जिस में मंत्र सुनाई दे वह मेंर बाकी सब तेरे। अनेक लोगों की उपस्थिति में ऐसा किया गया। उपले तोड़ने पर कई उपलों में मंत्र सुनाई दिया।
ये तीनों प्रसंग हमें एक सीनियर राजपत्रित अधिकारी ने सुनाए हैं।