सूफी, कौन ?

शिव शर्मा

बात आज के संदर्भ में कर रहा हूं। जो मनुष्य, भक्त (सेवा, कर्तव्य कर्म करता है) है वह सूफी है। जिस में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि गुण हैं वह सूफी है। धर्म चाहे जो हो। जाति कोई सी हो। गरीब हो या अमीर। स्त्री हो अथवा पुरुष। जो मन मस्तिष्क से साफ है चह सूफी है। उसे वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन , ईसाई आदि भी कहा जा सकता है ; क्यों कि आधार सब का समान है।

    सम्यक वाणी, दर्शन एवं सम्यक कर्म का पालन करने वाला सूफी है। ऐसा नहीं कि बाल बढा लिए, किसी हुजरे में बैठ गए और सफेद वस्त्र धारण कर लिये ; और हो गए सूफी। किसी के कपङे साफ लेकिन मन में मैल तो उसे सूफी कौन कहेगा ! दरगाह में बैठे हो किंतु मन में द्वष है, अहंकार है, ईर्ष्या है; तो वह सूफी नहीं है। वह भक्त भी नहीं ओर साधक भी नहीं।सदियों से एक धोखा चला आ रहा है – साधु के वेश में शेतान ; महात्मा के रूप में दुरात्मा ; योगी के वेश में भोगी। सावण ने साधु के वेश में ही सीताा का अपहरण किया था। अतः सूफी कोई वेश नहीं, आचरण है। कपङे कोई से हों, बैठक कहीं भी हो, भाषा कोई भी हो ; आचरण समान होगा, सदाचरण ही होगा। कपट नहीं, वासना नहीं, आडम्बर नहीं। कोठरी में बैठने वाला फकीर एवं सिंहासन पर विराजमान सम्राट , दोनो सूफी हो सकते हैं।
 जिस का मन विभाजित है वह सूफी नहीं। जहां द्वंद्व हे वहां सूफीयत कैसे ? जो खुद को श्रेष्ठ साबित करता है वह सूफी नहीं। पिछले दिनों एक महिला दाता महाराज के धाम (भीलवाङा) गई। उस का इकलौता बेटा बहुत बीमार रहता था। किसी ने वहां जाने की सलाह दी। उस स्थान पर एक कुजुर्ग मिले। लम्बा चौङा परिसर । वहां दाता (भगवान) की समाधी के अलावा और कुछ नहीं। महिला ने उन महाशय से पूछा कि वर्तमान दाता महाराज कहां मिलेंगे ? वे बोले कि यहां कोई महाराज नहीं रहते हैं। मे केवल झाङू बुहारा करता हूं। आप  समाधी पर श्रद्धापूर्वक नारियल रख दा। बस, यहां तो ऐसा ही रिवाज है। बाद में ज्ञाात हुआ कि वे झाङू बुहारा वाले बुजुर्ग ही वर्तमान गद्दी नशीन दाता थे।  ऐसी सरलता को ही सूफीयत कहा जा सकता है।….एक नंगा फकीर था। कोई सम्राट उस के पास गया। बोला कि मै अमुक देश का बादशाह हूं। आप की क्या सेवा करूं ? नंगा फकीर बोला कि मेरे सामने से हट जा ; धूप आने दे। इतनी निस्पृह होती है साधु वृत्त्ी।….निजामुद्दीन ओलिया के पास दिल्ली सल्तनत से प्रतिदिन प्रचुर मात्रा में अनाज व नकद राशि आती थी। शाम होने तक वे औलिया सब कुछ गरीबों को बांट देते थे। कई बार खुद के परिवार के लिए रोटी जितना आटा भी नहीं बचता था। अब कहां है ऐसा सूफी ? अब तो आश्रमों में भी अमीरी आ गई है । इस के दुष्परिणाम पत्र पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। अब तो संतों की छवियों के लिए भी सोने के सिंहासन हो गए, तस्वीरों पर सोने चांदी के फ्रेम चढ गए, घूमने फिरने के लिए ए.सी. गाङियां हो गईं और भण्डारों में स्वादिष्ट व्यंजन हो गए। पता नहीं, यह  किस श्रेणी की सूफीयत हैं ?
आप सूफी होने की बात ही छोङ दीजिए। शैव, वैष्णव, शाक्त आदि भीमत रहिये। केवल मनुष्य बने रहने के लिए सचेत रहिए, सचेष्ट रहिए। महात्मा होने की अनिश्चित दौङ में मत भागिये ; मनुष्य बने रहिए।  न साधना, न उपासना ; स्वयं के कर्तव्य तक सामित रहिए ; कर्तव्य पूर्ति में चूक से बचिए। ऐसा करने वाला किसी भी सूफी से कम नहीं होगा।
     क्या सूफी हुए बिना काम नहीं चलेगा , क्यांे नहीं ख्लेगा ! आप मनुष्य ही बने रहें। फिर और कुछ होने की आवश्यकता नहीं है।वे कार्य मत कीजिए जो आप को मनुष्यत्व से नीचे गिरा दें ; तो इतना ही प्याप्त है। आप गाङी को सङक से नीचे नहीं उतरने देते हैं तो स्वयं की मानवीय सोच को भी ‘नीचे’ मत लुढकने दो ; यह काफी है। सूफी को ऊंचे ब्राण्ड की तरह इसतेमाल करने की तनिक भी जरूरत नहीं है।  जीव की सर्वोत्तम उपाधी मनुष्य है। अब हमने इसे मनुष्य तो रहने नहीं दिया ; उसे महात्मा, संत, सूफी, अवतार आदि बना दिया ! उपाधियों के बोझ के नीचे मनुष्य को दबा दिया। जो मनुष्य अस्तित्व से ही ‘अहं ब्रह्मासिम’ है ( यह सब से उत्तम उपाधी है) उस पर भी परमहंस, देवदूत, महाप्रभु आदि उपाधियां जङ दीं !क्यों? मनुष्य को ‘ब्रह्मास्मि’ ही क्यों नहीं रहने दिया !अष्टावक्र ने राजा जनक को कहा कि तू कहीं मत जा ; स्वयं के ब्रह्म रूप को जान ले। अब हुआ यह कि हम ने विधि बताने वाले की ही पूजा आरम्भ कर दी ; ब्रह्म को छोङ दिया। फकीर, संत, महात्मा आदि को ब्रह्म से भी ऊपर उठा दिया। मेरे गुरु हजरत हर प्रसाद मिश्रा उवैसी ने मुझे समझाया कि दिव्य प्रकाश स्प परम सत्ता तक तुम्हें स्चयं चल कर जाना है। उन्होंने तो खुद को अपने गुरु बाबा बादाम शाह का केवल खास खादिम कहा ; न ओलिया, न परमहंस, न महात्मा !जब कि आप भी समर्थ थे। वस्तुतः रूहानी पुरुष कभी नहीं कहता कि उसे उपाधियों से महिमा मण्डित करो। यह सारा काम सेवादार करते हैं ; किंतु उन्हें रोका जाना चाहिए। भीलवाङा वाले दाता महाराज ऐसे ही हैं। वे महिमा मण्डन नहीं चाहते , इसलिए यथा सम्भव जन सम्पर्क में रहते ही नहीं हैं। दाता धाम पर झाङू बुहारा करने वाले बुजुर्ग के रूप में ही नजर आते हैं।
              वस्तुतः तो हम मनुष्य हैं। इसलिए खुद को उपाधि मत बनने दीजिए। उपाधी आपने अर्जित की है या आप को दी गई है। आप का आचरण उपाधी के माध्यम से भी मनुष्य के अनुकूल तो होना ही चाहिए। मनुष्य तो कर्म-स्वरूप है- कर्तव्य, सेवा, स्वधर्म आदि। कोई भी उपाधी यदि इस कर्मगत स्वरूप को बिगाङती है तो ऐसी उपाधी को छोङ दो। जद्दू कृष्णमूर्ति ने ऐसा ही किया था। रामकृष्ण देव किसी को आशीर्वाद नहीं देते थे ; कहते थे कि यह केवल परमात्मा की क्षमता है। महर्षि रमण पहाङी गुफा में रहे। कष्मीर की लल्ेश्वरी जंगल में रही; उसे शिव तत्व सिद्ध था। मीरा साधु संतों के साथ यायावर रही। भूरी देवी ने सारा जीवन एक कमरे में व्यतीत कर दिया। ऐसे भी सैकङों उदाहरण मिल जाएंगे। उधर जैन दर्शन में देहांत से पहले सारी उपाधियां त्याग देने का शानदार विधान है। …..तो मूल बात यही कि जो मनुष्य ‘शिवाऽहम्’, ब्रह्मासिम, तत्वमसि’ हे उसे वही रहना चाहिए, उसी के लिए कर्म करने चाहिए, उसी स्वरूप् में संकल्पित रहना चाहिए।
      तेा, इस किताब में हम इस मनुष्य को ही उपाधियों के नीचे से बाहर लाने का प्रयास कर रहे हैं।

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