जप करते समय माला को ढ़कते क्यों हैं?

tejwani girdhar

आपने देखा होगा कि अनेक श्रद्धालु जप करते समय हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े अथवा गौमुखी से ढ़क कर रखते हैं। गौमुखी अर्थात गौमुख की आकृति में सिला हुआ कपड़ा, जिसमें माला सहित हाथ डाल कर जप किया जाता है। इसकी वजह क्या है?
वस्तुतः हमारे यहां मान्यता है कि योग व भोग एकांत में अर्थात छिप कर करना चाहिए। किसी की दृष्टि या उपस्थिति का व्यवधान नहीं होना चाहिए। योग के मायने योगाभ्यास व ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना अर्थात पूजा-अर्चना या स्वाध्याय है। असल में योग व प्रार्थना पूर्णतः वैयक्तिक मानी जाती है। उसमें खलल नहीं पडऩा चाहिए। हालांकि योगाभ्यास व प्रार्थना सामूहिक भी की जाती है, मगर उसका वास्तविक लाभ एकांत में करने पर ही मिलता है। वजह ये कि तभी एकाग्रता कायम हो पाती है। कई बार ऐसा संभव नहीं होता। अगर अपने घर पर अथवा सार्वजनिक स्थान पर माला फेरने का समय हो जाए तो बेहतर ये है कि माला को ढ़क कर रखा जाए। यदि आप जप करते समय माला को खुला रखते हैं तो उस पर अन्य लोगों की नजर पड़ती है। उससे दोष उत्पन्न होता है।
इसी कारण विद्वान कहते हैं कि जप करते समय दाहिने हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। आपने देखा होगा कि अनेक मुस्लिम भी तस्बीह फेरते समय उसे कपडे से ढक कर रखते हैं।
ऐसा प्रायः देखने में आता है कि कई लोग प्रवचन सुनते समय भी माला फेरते रहते हैं, मगर यह समझ से परे है कि वे प्रवचन व नाम स्मरण या मंत्रोच्चार के बीच कैसे सामंजस्य बैठा पाते होंगे। कभी प्रवचन पर ध्यान जाता होगा तो कभी जप पर। यानि कि दोनों ही अधूरे। किसी से बातचीत करते समय भी माला फेरने से कोई लाभ नहीं हो सकता। और अगर माला के मनकों को ही फेरा जा रहा है तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है।
तभी तो कबीरदास जी कहते हैं-
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
निहितार्थ यही है कि केवल माला के मनके फेरने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उनके साथ मन का संबंध नहीं होगा।
इसी प्रकार भोग अर्थात भोजन व मैथुन भी एकांत में करने की सीख दी हुई है। आम तौर पर एकांत में भोजन करने की सुविधा नहीं होती, इस कारण नियम में पालना कम ही हो पाती है। आजकल तो डायनिंग टेबल का चलन है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं, मगर पुरानी मान्यता ये है कि भोजन करते वक्त किसी की दृष्टि नहीं पडऩी चाहिए। एक साथ बैठ कर भोजन करने से स्वाभाविक रूप से आपस में बातचीत भी होती ही है, ऐसे में हम जो भोजन करते हैं, उससे ख्याल हट जाता है। हम उसका पूरा रस नहीं ले पाते। भोजन का वास्तविक आनंद उसका पूरा रस लेने में ही तो है। इसके लिए बेहतर ये है कि हम विभिन्न सांसारिक बातों का चिंतन करने की बजाय केवल भोजन पर ही ध्यान दें। भोजन करते समय बातचीत न की जाए, इस कारण हमारे यहां कहा जाता है कि भोजन के वक्त बात न करें, वरना वह भोजन दुष्टात्माओं को प्राप्त हो जाता है। आपने देखा होगा कि कई दुकानदार मुंह फेर कर भोजन करते हैं। प्रयोजन ये है कि एक तो ग्राहक आए तो उसे ख्याल रहे कि दुकानदार भोजन कर रहा है और वह कुछ देर इंतजार करे, दूसरा ये कि भोजन पर ग्राहक की नजर न पड़े। ऐसा मानते हैं कि भोजन पर किसी की नजर पडऩे पर उसमें दृष्टि दोष हो जाता है। इस दोष का अर्थ ये है कि अगर देखने वाला के मन में भोजन के प्रति क्षुधा का भाव आ जाए तो वह अशुद्ध हो जाता है। कई लोग दुकानों में सजाई मिठाई केवल इसी कारण नहीं खरीदते, क्योंकि उस पर न जाने कितने लोगों की ललचाई नजर पड़ी होगी। हमारे यहां तो यह तक चलन है कि भगवान के भोग लगाते समय या तो थाली को कपड़े से ढ़क कर रखते हैं या पर्दा लगा देते हैं। जब भगवान तक को एकांत में भोजन करवाते हैं तो हमें क्यों नहीं इस नियम की पालना करनी चाहिए। इसके पीछे एक भाव ये है कि मूर्ति के भोजन ग्रहण करने के चमत्कार को देखने की क्षमता हमारे में नहीं है।

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