
पिता- दो अक्षर का एक शब्द जिसमें समाया हुआ संसार का अर्थ- वो अर्थ जो बाहरी सतह से समझ पाना एक बच्चे के लिए शायद मुश्किल होता है तब तक जब तक कि वो ख़ुद पिता ना बन जाए। बचपन का बाल मन सिर्फ़ मां के आंचल की छांव को महसूस कर पाता है, वट वृक्ष की तरह फैले पिता के अपार अपनत्व और पितृत्व को समझने की समझ उसे उम्र के साथ आती है,कई मामलों में तो ये समझ जब तक आती है, तब तक संतान पिता के स्नेह से सदा के लिए वंचित हो चुकती है। भारतीय समाज एक पितृ सत्तात्मक समाज रहा है और हमारे यहां पिता की भूमिका हमेशा से ही नारियल के खोल की तरह सख़्त रही है लेकिन इस खोल के भीतर एक नरम दिल और शीतलता से भरा हुआ बाप हमें आसानी से दिखाई नहीं पड़ता। एक संतान का संसार माता-पिता की दुआओं से ही चल रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी ने की और जगत जननी ने इसमें प्राण स्फुटित कर दिए। प्रकृति मां और सूर्य- चंद्र देवता के पारस्परिक समन्वयन से इस सृष्टि को सृष्टि के रचयिता क्या बख़ूबी चला रहे हैं। ऐसे ही, वर्तमान में, समय और परिस्थितियां तेज़ी से बदल रही हैं । पिता चाहे कितना ही कठोरता से अपने बच्चों के सामने पेश आने का प्रयास करे लेकिन वही पिता बच्चों के सामने अपना कोमल हृदय भी बरबस ही खोल पड़ता है। आज कार्पोरेट जगत हो या सरकारी महकमा, शायद इसीलिए मातृत्व अवकाश के साथ-साथ पितृत्व अवकाश की भी स्वीकृति होने लगी है जो वाक़ई एक शुभ संकेत है। हमारे यहां मां हमेशा अपनी ममत्व से भरी मुस्कान के साथ बच्चों के दिलों पर राज करती है और पिता एक वट वृक्ष की तरह, नारियल के खोल से और एक सख़्त- दरख़्त की भांति कठोरता से अनुशासन और मर्यादा को परिवार में कायम करने को बच्चों के सामने कभी-कभार खलनायक तक बन जाते हैं लेकिन यकीन मानिए, पिता की ये डांट-फटकार, उनका ये रोकना-टोकना, सब हमें हीरे-सा चमकदार बना रहा है,तो वक़्त रहते, अपने जौहरी/पिता को पहचानिए जो जन्म के साथ ही अपने हीरे यानि आपको, पहचान लेते हैं क्योंकि कहते हैं ना- हीरे की पहचान तो जौहरी ही कर सकता है।