नए भारत को सुरक्षा एवं संवेदना वाली नई पुलिस चाहिए

भारतीय लोकतंत्र में पुलिस व्यवस्था कानून-व्यवस्था की आधारभूत धुरी है, परंतु आम नागरिक के मानस में पुलिस की छवि अभी भी कठोरता, डर और दमन से जुड़ी हुई है। इसे केवल अधिकार जताने वाली शक्ति समझा गया है, संवेदनशीलता, जवाबदेही और मित्र भाव से नहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय प्रबंधन संस्थान रायपुर में पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के 60वें अखिल भारतीय सम्मेलन में इसी जटिलता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि पुलिस की छवि तभी बदलेगी जब व्यवस्था अधिक प्रोफेशनल, अधिक उत्तरदायी और अधिक मानवीय बने। विकसित भारत की दृष्टि में पुलिस का पुनर्गठन केवल प्रशासनिक सुधार नहीं बल्कि समाज में भरोसे को पुनर्जीवित करने का कार्य भी है। पुलिस के पास अपराध नियंत्रण, आतंकवाद-निरोध, भीड़ प्रबंधन, आपदा राहत, नशीली दवाओं के खिलाफ अभियान, चुनाव ड्यूटी और वीआईपी सुरक्षा जैसी असंख्य जिम्मेदारियां हैं, लेकिन संसाधन सीमित हैं, कार्य-भार भारी और राजनीतिक दबाव व्यापक हैं। कुछ अधिकारियों के भ्रष्ट या कठोर व्यवहार ने संपूर्ण पुलिस व्यवस्था की छवि पर चोट पहुंचाई है, इसलिए जनता पुलिस के निकट आने पर भी भय का अनुभव करती है। प्रधानमंत्री ने इस स्थिति बदलने की स्पष्ट आवश्यकता जताई और युवाओं में पुलिस की सकारात्मक छवि निर्माण पर बल दिया ताकि आने वाली पीढ़ी पुलिस को मित्र और संरक्षणकर्ता के रूप में पहचाने।
भारतीय लोकतंत्र के संरचनात्मक स्तंभों में पुलिस की भूमिका अत्यंत निर्णायक है। वह केवल अपराधियों से मुकाबला करने वाली शक्ति नहीं बल्कि कानून-व्यवस्था, नैतिकता और जनविश्वास की संरक्षक है। परंतु विडम्बना यह है कि आम जनता के मानस में पुलिस की छवि आज भी कठोरता, डर, भ्रष्टाचार और दमन से जुड़ी हुई दिखाई देती है। समाज पुलिस को “डंडे” और “खाकी” के प्रतीक रूप में पहचानता है, संवेदनशीलता और जवाबदेही के दृष्टिकोण से नहीं। यही कारण है कि पुलिस सुधार दशकों से विमर्श का विषय तो रहा, लेकिन कभी जनांदोलन नहीं बन सका, न चुनावी मुद्दा बना और न ही गंभीर राजनीतिक प्राथमिकता। इसलिये मोदी ने शहरी पुलिसिंग को मजबूत करने, पर्यटक पुलिस को फिर से सक्रिय करने, विश्वविद्यालयों को फोरेंसिक अध्ययन के लिए प्रेरित करने और नए भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम तथा नागरिक सुरक्षा संहिता पर व्यापक जनजागरूकता चलाने की जरूरत रेखांकित की। उनका यह दृष्टिकोण पुलिस को प्रतिक्रियाशील संस्था से आगे बढ़ाकर बुद्धिमान, वैज्ञानिक, पूर्वानुमान आधारित और विश्वसनीय संस्था बनाने की दिशा है।
प्रधानमंत्री की दृष्टि का महत्वपूर्ण आयाम यह है कि पुलिस केवल कानून लागू करने वाली मशीन नहीं बल्कि समाज का सहभागी तंत्र है। यदि पुलिस व्यवहार में संवेदनशीलता, संवाद, पारदर्शिता और विनम्रता विकसित करे तो जनविश्वास स्वतः बढ़ेगा। नए कानूनों के बारे में जन-जागरूकता अभियान इसी सोच का हिस्सा है, क्योंकि कानून तभी प्रभावी होते हैं जब जनता उन्हें समझती और स्वीकार करती है। अपराध की प्रकृति तेजी से बदल रही है, इसलिए पुलिस का प्रशिक्षण, तकनीकी दक्षता, इंटेलिजेंस नेटवर्क और फोरेंसिक क्षमता मजबूत होना अनिवार्य है। प्रधानमंत्री ने नेटग्रिड, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एकीकृत डेटाबेस के प्रभावी उपयोग पर जोर देकर पुलिसिंग को डेटा आधारित, कृत्रिम बुद्धिमता-एआई और वैज्ञानिक सोच से जोड़ने की दिशा दिखाई है। उन्होंने प्रतिबंधित संगठनों की सतत निगरानी, नशीली दवाओं के विरुद्ध बहुस्तरीय रणनीति, कट्टरपंथ से प्रभावित क्षेत्रों में विकास आधारित समाधान, तटीय सुरक्षा के नवाचार, तथा प्राकृतिक आपदाओं में सक्रिय पुलिस नेतृत्व की आवश्यकता भी व्यक्त की। यह सब उस व्यापक सोच का हिस्सा है जिसमें पुलिस केवल अपराध से लड़ने वाली व्यवस्था नहीं बल्कि विकास की रणनीतिक सहभागी शक्ति है।
परंतु पुलिस सुधार केवल निर्देशों से संभव नहीं; इसके लिए संतुलित एवं अत्याधुनिक ढांचे की जरूरत है जिसमें प्रशिक्षण, संसाधन, मनोबल, आचार-नीति, राजनीतिक निर्भरताओं से मुक्ति और सामाजिक सम्मान शामिल हों। आलोचना जितनी महत्वपूर्ण है, पुलिस के संघर्षों को समझना भी उतना ही आवश्यक है, क्योंकि इसी दोतरफा समझ से सुधार का रास्ता निकलता है। प्रधानमंत्री की अपेक्षा है कि पुलिस नेतृत्व खुद को नए भारत की आकांक्षाओं के अनुरूप तैयार करे, लक्ष्य स्पष्ट करे और वह व्यवस्था बनाए जिसमें नागरिक पुलिस को भय से नहीं बल्कि विश्वास से देखें। विकसित भारत की यात्रा में सुरक्षा, न्यायबोध और अनुशासन की संरचना को सशक्त बनाने के लिए पुलिस का आधुनिक, मानवीय और विश्वसनीय स्वरूप अनिवार्य है। यह सुधार केवल तकनीकी बदलाव नहीं, बल्कि सोच, दृष्टि और चरित्र का परिवर्तन है। तभी खाकी का सम्मान लौटेगा, जनता का विश्वास मजबूत होगा और पुलिस व्यवस्था वास्तव में लोकतंत्र की प्रहरी के रूप में पहचानी जाएगी।
प्रधानमंत्री के ताजा विचारों ने स्पष्ट किया है कि पुलिस की छवि सुधारने का अर्थ केवल कठोरता घटाना नहीं, बल्कि उसे प्रोफेशनल, संवेदनशील और जवाबदेह बनाना है। आज जरूरत इस बात की है कि पुलिस व्यवस्था के लिए भय का नहीं, विश्वास और सुरक्षा का केंद्र बने। शहरी पुलिसिंग को सुदृढ़ करने, पर्यटक पुलिस को पुनर्जीवित करने और नए आपराधिक कानूनों पर जन-जागरूकता बढ़ाने की दिशा में पहल इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे पुलिस “डंडे की ताकत” से आगे बढ़कर “मदद की शक्ति” बनेगी। यदि नागरिक को यह अनुभव होने लगे कि पुलिस मदद के लिए तत्पर है, उसके अधिकारों का सम्मान करती है और कानून का निष्पक्ष पालन करती है, तो खाकी वर्दी का अर्थ केवल अनुशासन नहीं बल्कि विश्वास, अभय और सहारा प्रतीत होगा। यही वह परिवर्तन है जो विकसित भारत की सोच में निहित है।
अंग्रेज़ी शासकों ने अपने शासन को थोपने, जनता को नियंत्रित करने और भय-आधारित प्रशासन चलाने हेतु पुलिस तंत्र की रचना की। 1860 के कानून के आधार पर स्थापित भारतीय पुलिस का मूल चरित्र दंडात्मक, शासक-केन्द्रित और कठोर शक्ति-प्रयोग वाला था। स्वतंत्रता के बाद भी इस व्यवस्था में सार्थक बदलाव न होना एक विडंबना है। आज़ाद भारत ने लोकतंत्र अपनाया पर पुलिस ढांचे ने अभी तक औपनिवेशिक सोच को पूरी तरह त्यागा नहीं। परिणामतः पुलिस जनसेवा की बजाय सत्ता को बचाने और भय पैदा करने का उपकरण बनी रह गई। आज आवश्यकता है कि भारत का पुलिस तंत्र भारत के मूल्यों के अनुरूप पुनर्निर्मित हो। विकसित भारत को विकसित सोच वाली पुलिस चाहिए जो नागरिकों के साथ विश्वास-आधारित संबंध बनाए, दमन नहीं बल्कि संरक्षण दे, और कानून को लागू करने में नैतिकता, पारदर्शिता और मानवता को प्राथमिकता दे। ऐसी पुलिस व्यवस्था ही सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की प्रहरी बन सकती है और भारत की सभ्यता-संस्कारों का प्रतिबिंब भी।
इसी संदर्भ में पुलिस थानों के नामकरण की सोच पर पुनर्विचार भी आवश्यक है। “थाना” शब्द में दमन और भय की छाया रही है, जबकि लोकतांत्रिक समाज में वह नागरिक सहारा का स्थान होना चाहिए। यदि उन्हें “सुरक्षा केंद्र”, “नागरिक सहायता केंद्र”, “पुलिस सेवा भवन”, “अभय केंद्र” या “सहयोग प्रहरी केंद्र” जैसे नाम दिए जाएं तो नागरिक के मानस में पुलिस की भूमिका का अर्थ बदलने लगेगा। नाम केवल शब्द नहीं होता, वह भाव, चरित्र और अनुभव निर्मित करता है। इस सकारात्मक नामकरण से पुलिस केन्द्र केवल शिकायत या धमकाने का प्रतीक नहीं बल्कि सहायता, समस्या-समाधान, विश्वास और न्याय का केन्द्र बन सकता है। यह प्रतीकात्मक परिवर्तन, यदि व्यवहार सुधार के साथ जुड़ जाए, तो पुलिस के प्रति जनता में सम्मान, निर्भयता और साझेदारी की भावना और अधिक मजबूत होगी और यही वह दिशा है जिसे विकसित भारत की सुरक्षा, नीतिगत सोच और संवेदनशील शासन का स्वरूप कह सकते हैं।
इसके विपरीत आज की वास्तविकता यह है कि जब पुलिस दरवाजे पर आती है, तो नागरिक घबराता है-“कहीं फंस न जाऊं।” यह भय उस विश्वासहीनता का परिणाम है जिसे बदलना आवश्यक है। अपराध की प्रकृति बदल रही है, साइबर अपराध, आर्थिक अपराध, आतंकवाद, मानव तस्करी, ड्रग नेटवर्क-इनसे मुकाबले के लिए बेहतर प्रशिक्षण, तकनीक और इंटेलिजेंस चाहिए। लोकतंत्र में पुलिस सबसे प्रत्यक्ष शासन-कर्म है। जनता रोज उसे देखती, झेलती और समझती है। खराब अनुभव सीधे शासन के प्रति अविश्वास पैदा करते हैं। विकसित भारत 2047 की आकांक्षाओं में पुलिस वह संरचना है जो सुरक्षा, अनुशासन, न्याय और सामाजिक साझेदारी को सुनिश्चित करती है। पुलिस की वर्दी के भीतर मनुष्य, संवेदना और विवेक दिखाई दे, तभी खाकी का सम्मान लौटेगा और जनता का विश्वास सुदृढ़ होगा। नए भारत के निर्माण में पुलिस का यह रूपांतरण एक निर्णायक धुरी होगा, जहां सुरक्षा और संवेदनशीलता साथ-साथ चलें, और जहां कानून केवल भय नहीं बल्कि न्याय और विश्वास का प्रतीक बने। प्रेषकः
 (ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोनः 22727486, 9811051133

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