
भाजपा की प्रदेश में कद्दावर नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भले ही प्रदेशाध्यक्ष पद पर काबिज हो गई हों,लेकिन पार्टी के संगठनात्मक ढांचे पर उनका पहले जैसा रूतबा नजर आने की संभावना कम ही नजर आ रही है। राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ उनकी पटरी बैठ पाएगी या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा। सिंह और राजे के बीच गत विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान जो दूरियां बन गई थीं वह मिटीं हो ऎसा तो फिलहाल देखने में नहीं आ रहा।
उधर, संघ (आरएसएस) भी अनमने मन से राजे को प्रदेश की कमान सौंपने को राजी हुआ है। संघ नहीं चाहेगा कि राजे को मनमर्जी करने का मौका मिले। संघ अपने विश्वासपापात्र कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी बर्दाश्त नहीं कर सकता ऎसे में राजे अपनी इच्छानुसार पार्टी के संगठनात्मक स्वरूप में कितना बदलाव करने की हिम्मत जुटा पाएंगी यह सवाल भी मुंह बाए खड़ा है। जिस तरह राजनाथ सिंह के दबाव में राजे को तत्कालीन चुनावों में हार के बाद इस्तीफा देना पड़ा था वह किसी से छिपा नहीं है। उस दौरान सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और राजे उनके आदेशों की कदम दर कदम अवहेलना पर उतारू थीं। ऎसे में सिंह ने कठोर निर्णय लेते हुए राजे को प्रदेश में पार्टी के समस्त पद छोड़ने को मजबूर कर दिया।
अब जब फिर राजे के हाथों प्रदेश भाजपा की कमान आई है तो वे अपनी चौसर बिछाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाली है,लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि बीते दो चुनावों में सत्ता से बाहर रहने के बाद वे प्रदेश में ज्यादा नहीं रहीं। ऎसे में उनके अपने समर्थक कार्यकर्ता खुद को ठगा महसूस करने लगे। लेकिन उन कार्यकर्ताओं का वजूद बना रहा जो भाजपा की संगठनात्मक संगरचना और ताने बाने के साथ मैदान में डटे रहे। पार्टी के हर आदेश को शिरोधार्य मानकर चलते रहे। अब जब राजे प्रदेश में पार्टी या संगठन में बदलाव की कोशिश करतीं हैं तो सबसे पहले उन्हें मिल के पत्थर बन चुके कार्यकर्ताओं से जूझना होगा। मील के पत्थर बन चुके इन कार्यर्ताओं की डोर अब राजे के हाथों नहीं बल्कि संघ के साथ बंधी है।ये वहीं करेंगे जो संघ कहेगा। ऎसे में राजे जो कहेंगी उस पर कितना अमल होगा यह वक्त ही बताएगा।