सोना तो जरूर निकलेगा। उसकी मात्रा कितनी होगी और रंग-रूप कैसा होगा, इसे लेकर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। राजा राव रामबख्श सिंह के किले में खजाने को लेकर खबरिया चैनल बिना बात की माथापच्ची में लगे हुए हैं। शोभन सरकार के सपने, राजा राव रामबख्श सिंह की माली हालत, उनकी रियासत की मालगुजारी वगैरा को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रहीं हैं, पर गहराई से तथ्यों की पड़ताल करने की जहमत नहीं उठाई जा रही है। पूरा माहौल सोना निकलेगा या नहीं निकलेगा?, सपना सच होगा या मिथ्या?, इसी बहस पर सिमट गया है।
राजा राव रामबख्श सिंह बैसवारे की डौडियाखेड़ा रियासत के राजा होने के साथ ही कारोबारी भी थे। कानपुर में उनकी सर्राफा की दुकान थी। इसके अलावा कानपुर के ही तिवारी बैंकर्स आदि से उनके घनिष्ट संबंध थे, जिनकी फर्म कलकत्ता तक थीं। गदर के वक्त अवध के नवाबों के साथ तमाम हिंदू-मुसलमान छोटी रियासतों के राजा, जमींदार, तालुकेदारों ने एकजुट होकर कंपनी सरकार से लोहा लिया था। राजा बेनी माधव अपने खजाने के साथ ही भाग-भाग कर मोर्चा लेते रहे। राजा राव रामबख्श सिंह की मालगुजारी या रियासत के आधार पर उनकी सम्पन्नता कूतना उचित न होगा, वह स्वर्ण कारोबारी भी थे।
डौडियाखेडा की भौगोलिक स्थिति गंगा किनारे होने के कारण अंग्रेजो से छिपकर योजना बनाने और धन-संपदा रखने का सुरक्षित ठिकाना था। लखनऊ पर कब्जे से पहले बाजी पेशवा की जागीर हड़पी जा चुकी थी। इस कारण मुमकिन है उत्तराधिकारी नाना पेशवा डौडियाखेड़ा में अपनी संपत्ति सुरक्षित करने आए हों। इसलिए किले में खजाना होना कोई अचरज की बात नहीं हो सकती। राजा राव रामबख्श सिंह को फांसी देने के बाद अंगरेजों ने तोपे लगाकर किला उड़ा दिया पर उनके हाथ कुछ नहीं लगा।
संत शोभन सरकार कोई आसाराम मार्का पाखंडी नहीं है। बेहद सादगी के साथ रहकर सामाजिक कार्य करते रहते हैं। स्कूल, बावली आदि बनवाई है। मुमकिन हो उन्हें इलाके के पुरातात्विक अहमियत की जानकारी हो। संभव यह भी है कि उनके पास किले में खजाना वगैरा होने की कोई सांकेतिक जानकारी हो। चूंकि सारा मामला मंदिर से जुड़ा है, इस कारण भी शोभन सरकार की बात में कोई बड़बोलापन नजर नहीं आता। जैसा में पहले कह चुका हूं कि सोना जरूर मिलेगा। उसका रंग-रूप कैसा होगा, इस बारे में कुछ कह नहीं सकता। भारतीय पुरातात्विक सर्वे की ओर से उत्खनन किया जाना है। एएसआई के लिए पुरातात्विक मृदभाड सोने से कम कीमती नहीं होते, जिनके जरिए ऐतिहासिक कड़ियां जुड़ती हैं।
लेखक जितेंद्र दीक्षित मेरठ के वरिष्ठ पत्रकार हैं, अमर उजाला अखबार से संबद्ध हैं http://bhadas4media.com