ऐतिहासिक अजमेर

राजस्थान की हृदयस्थली अजमेर देश के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी स्थापना महाराजा अजयराज ने की। यहां पर सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक चौहान शासकों का शृंखलाबद्ध राज्य रहा। मुगल बादशाहों ने यहां अपना आधिपत्य तो जमाया ही, अनेक सैन्य अभियान भी चलाए। आजादी से पहले तक यह अंग्रेजों के कब्जे में रहा।

तेजवानी गिरधर
राजस्थान की हृदयस्थली अजमेर न केवल राज्य अपितु देश के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी स्थापना महाराजा अजयराज ने की। यहां पर सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक चौहान शासकों का शृंखलाबद्ध राज्य रहा। अजयराज ने उज्जैन के नरवर्मन को अवंती नदी पर हरा कर अपने राज्य की सीमा मालवा तक कर ली थी। उन्होंने गजनवी की सेनाओं से भी कड़ा मुकाबला कर विजय हासिल की। अजयराज ने ही तारागढ़ का निर्माण करवाया था। जीवन के आखिरी पड़ाव में उन्होंने अपने पुत्र अरणोराज को सिंहासन सौंप दिया और स्वयं संन्यास धारण कर पुष्करारण्य में जीवन बिताया।
अरणोराज ने भी बहादुरी का परिचय दिया और लाहौर व गजनी की यमन सेना के आक्रमण का मुकाबला कर राज्य की सीमाएं बढ़ाईं। इसी प्रकार पुष्कर में तुर्कों के आक्रमण का डट कर मुकाबला कर उन्हें खदेड़ दिया। अंतत: 1150 ईस्वी में कुमार पाल ने उसे परास्त कर दिया। बाद में उनके ही पुत्र जगदेव ने हत्या कर राज्य पर कब्जा कर लिया। जगदेव का भी वही हश्र हुआ और उनके छोटे भाई विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) ने उन्हें मार डाला। विग्रहराज चतुर्थ ने तोमरों से मुकाबला कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। यह चौहानों का स्वर्णिम काल था। चौहान काल के अन्नाजी ने आनासागर झील का निर्माण करवाया। चौहानों के अंतिम शासक पृथ्वीराज चौहान थे। इतिहास प्रसिद्ध कवि चंदवरदायी ने अपने ग्रंथ पृथ्वीराज रासो में उसका वर्णन किया है। वे अजयमेरु के संस्थापक महाराजा अजयराज व मुद्रा महिषी सोमलदेवी के प्रपौत्र, सोमेश्वर चौहान व कर्पूर देवी के पुत्र थे। उनका जन्म 1166 ईस्वी में हुआ और मात्र 14 साल की उम्र में ही सिंहासन पर असीन हुए। उन्होंने अपने सभी पड़ौसियों गुजरात, बंदुलखंड, हरियाणा, दिल्ली, पूर्वी पंजाब को परास्त कर उनकी आधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया। उन्होंने अपनी प्रेमिका, कन्नौज की संयोगिता का हरण कर अजयमेरु दुर्ग में राजरानी बनाया। उन्होंने तुर्क मोहम्मद गौरी को 1911 में तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित किया, किंतु सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने तराइन के दूसरे युद्ध में उनको हरा दिया। गौरी ने उन्हें कैद कर अजयमेरु दुर्ग में रखा, जहां उनकी निर्मम हत्या करवा दी गई। उस समय उनकी उम्र मात्र 26 साल थी। वे अंतिम हिंदू शासक थे, जिन्होंने तुर्क आक्रमणकारियों को आठ साल तक रोके रखा। इसके बाद अजमेर मुसलमानों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। दस साल में पूरा उत्तर भारत ही तुर्क सत्ता के सम्मुख नतमस्तक हो गया।
मोहम्मद गौरी ने अजमेर पर मुस्लिम शासन स्थापित करने की जिम्मेदारी कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपी और वह आस-पास के इलाके में सैन्य अभियान संचालित करता रहा। पृथ्वीराज के छोटे भाई ने मुस्लिमों का आधिपत्य स्वीकार करने वाले अपने भतीजे को गद्दी से उतारा और खुद राजा बन गया। हरिराज के सेनापति छत्रराज ने दिल्ली पर हमला किया, लेकिन कुतुबुद्दीन से हार कर भागा। उसका पीछा करते हुए कुतबुद्दीन अजमेर आया और हरिराज को हरा कर यहां कब्जा कर लिया। वह अपना विस्तार अन्हिवाड़ा तक करना चाहता था, लेकिन मेरों ने राजपूतों के सहयोग से उसे खदेड़ दिया और घायल हो कर उसने अजमेर के किले में शरण ली। राजपूतों ने किले को घेर लिया। यह घेरा कई माह रहा, लेकिन कुतुबुद्दीन की मदद के लिए गजनी से सेना आई तो राजपूतों को पीछे हटना पड़ा। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद राजपूतों ने तारागढ़ पर कब्जा कर लिया, लेकिन इल्तुतमिश ने उन्हें बेदखल कर दिया। इसके बाद तैमूर के आक्रमण तक अर्थात चौदहवीं सदी के अंत तक अजमेर दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा।
तैमूर के आक्रमण व अकबर के अजमेर विजय के बीच के काल में यहां कई बार सत्ता परिवर्तित हुई। यह क्रमश: मालवा के मुस्लिम सुल्तानों, गुजराज के सुल्तान व राजपूतों के अधिकार में रहा। सन् 1397 से 1409 के दौरान मेवाड़ के राव रणमल ने अजमेर पर अधिकार कर लिया। 1455 के बाद मांड के सुल्तान महमूद खिलजी ने अजमेर के हाकिम गजधरराय को हरा कर अजमेर पर कब्जा कर लिया। करीब पचास साल बाद राणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज ने तारागढ़ पर कब्जा कर लिया।
सन् 1533 में गुजराज के सुल्तान बहादुरशाह ने शमशेर उल मुल्क को भेज कर अपना अधिकार कर लिया। दो साल बाद ही मेड़ता के राव बीरमदेव ने गुजरात के हाकिम को खदेड़ दिया। सन् 1535 में मारवाड़ के राव मालदेव ने अपने नियंत्रण में ले लिया और 1543 तक काबिज रहा। इसके बाद शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर हमला कर अजमेर पर भी कब्जा कर लिया। इस्लाम के शाह सूर के पतन के बाद सन् 1556 में हाजी खान ने अजमेर पर कब्जा किया, लेकिन अकबर से घबरा कर वह भाग गया और अकबर के सेनापति कासिम खान ने कब्जा कर लिया। सन् 1730 तक यह मुगल शासन के अंतर्गत रहा। अकबर को अजमेर बेहद पसंद आया और उसने यहां शहरपनाह, दरगाह बाजार व शस्त्रागार बनवाए। वह साल में एक बार तो अजमेर आ ही जाता था। जहांगीर यहां तीन साल रहा। उसने यहां दौलतबाग बनवाया। शाहजहां ने बारादरी व दरगाह में जामा मस्जिद बनवाई। करीब दो सौ साल तक अजमेर मुगल साम्राज्य के अधीन रहा। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हुआ। सन् 1719 में सैयद बंधुओं के पतन के बाद जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने अजमेर पर कब्जा कर लिया। सन् 1721 में मुहम्मद शाह ने काजी मुजफ्फर के नेतृत्व में सेना भेजी, लेकिन अजीत सिंह के पुत्र अभयसिंह ने उसे भगा दिया। इसी दरम्यान जयपुर के राजा जयसिंह ने मुगल शासन की मदद की और अजमेर पर आक्रमण कर दिया। अभयसिंह की अनुपस्थिति में यहां की रक्षा कर रहे अमरसिंह को समझौता करना पड़ा और यहां फिर से मुगल साम्राज्य हो गया।
सन् 1730 में गुजरात के सर बुलंदखान ने दिल्ली की अधीनता अस्वीकार कर दी। इस पर मुगल सम्राट ने अभयसिंह को अजमेर व गुजरात का हाकिम बनाने का लालच दे कर उसकी सहायता से 1931 में गुजरात पर आधिपत्य कर लिया, लेकिन भरतपुर के जाट शासक चूड़ामण को दबाने के उपलक्ष्य में जयपुर के सवाई जयसिंह को अजमेर सौंप दिया। इससे यहां राठौड़ों व कछवाहों के बीच संघर्ष की स्थिति बन गई।
सन् 1740 में अभयसिंह के भाई बखतसिंह ने भिनाय व पीसांगन के राजाओं की सहायता से अजमेर के हाकिम को हरा कर यहां राठौड़ों का पुन: अधिकार कायम कर लिया। इस पर 8 जून, 1741 को गगवाना के पास जयपुर व जोधपुर के बीच युद्ध हुआ और जयसिंह को संधि करनी पड़ी। राठौड़ों को जयसिंह के सात परगने मिले, जिनमें अजमेर भी शामिल था।
राजपूतों की आपसी लड़ाई का लाभ मराठों ने उठाया और मेड़ता के युद्ध में मराठों के सहयोग से जयपुर के राजा ईश्वरी सिंह ने जोधपुर के राजा विजयसिंह को हरा दिया। सन् 1756 से दो साल तक अजमेर मराठों व रामसिंह के अधिकार में रहा। हालांकि छोटी-मोटी जंगें होती रहीं, लेकिन 1791 तक मराठों का ही आधिपत्य रहा। मारवाड़ के भीमराज ने मराठा सूबेदार अनवर जंग से अजमेर छीन कर छोटे भाई सिंघवी धनराज को सौंप दिया। कुछ दिन बाद ही मारवाड़ के राजा विजयसिंह ने खरवा के ठाकुर सूरजमल, जो अजमेर किले के किलेदार थे, को आदेश दिया कि अजमेर मराठों को सौंप दें। सन् 1800 तक मराठों ने यहां घोर अत्याचार किया। इस कारण धीरे-धीरे उनके खिलाफ असंतोष पनपने लगा। सेना के सर्वोच्च सेनापति रहे लकवा दादा ने बगावत कर दी। इस पर जनरल पैरों को अजमेर आधिपत्य सौंपा गया। उसने मेजर बोर गुई को अजमेर भेजा, मगर पूरे पांच माह तक प्रयास के बाद उसे कामयाबी हासिल हुई और 8 मई, 1801 को पैरों अजमेर के सूबेदार बने व लो महोदय को प्रशासन का काम सौंपा गया। इसके बाद 1818 तक अंग्रेजों व मराठों के बीच खींचतान रही। लॉर्ड वेलेजली के समय में अंग्रेजों और सिंधियाओं के बीच युद्ध छिडऩे पर मारवाड़ के राजा मानसिंह ने अजमेर मराठों से छीन लिया और तीन साल तक काबिज रहा। बाद में अंग्रेजों व मराठों के बीच समझौता हुआ व अजमेर फिर मराठों के पास आ गया। 25 जून, 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी व महाराजा आलीजाह दौलतराव सिंधिया के बीच हुए समझौते के तहत अजमेर को अंग्रेजों के अधीन सौंप दिया गया। अंग्रेजों ने नसीराबाद के पास फौजी छावनी बनाई। अजमेर को प्रांत का दर्जा दे कर इसका नाम अजमेर-मेरवाड़ा किया गया। सन् 1842 में अजमेर का प्रशासन कर्नल डिक्सन को सौंपा गया। उसके कार्यकाल में काफी विकास कार्य हुए। उसका निधन 1857 में हुआ। इसके बाद कैप्टन बी. पी. लॉयड को उपायुक्त बनाया गया। सन् 1864 व 1868 में कैप्टन रेप्टन को यह भार सौंपा गया। 20 अक्टूबर, 1870 को भारत के वायसराय लॉर्ड मेयो अजमेर आए और उन्होंने दो दिन तक दरबार लगाया, जिसमें उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी, करौली, टौंक, किशनगढ़ व झालावाड़ के राजाओं ने भाग लिया।
सन् 1871 में भारत सरकार के विदेश व राजनैतिक विभाग को अजमेर-मेरवाड़ा का प्रशासन सौंपा गया और राजपूताना के गवर्नर जनरल के एजेंट को ही पदेन मुख्य आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। उसके अधीन एक कमिश्नर व अजमेर व मेरवाड़ा के लिए एक-एक सहायक आयुक्त नियुक्त किए गए।
सन् 1875 में पहली बार प्रांत का बीस वर्षीय सेटलमेंट कर उसी के अनुरूप ही विकास कार्य शुरू किए गए। यूं तो ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने 1847 में हाई स्कूल की स्थापना की थी, लेकिन मेयो कॉलेज की स्थापना 1875 में हुई। इसी क्रम में सोफिया स्कूल व कॉलेज व सेंट एन्सलम्स स्कूल की स्थापना हुई। जून, 1864 में अजमेर को आगरा से टेलीग्राफ सेवा से जोड़ा गया। रेलवे में ये सेवाएं अगस्त 1875 में शुरू हुईं। सन् 1879 में बीबी एंड सीआई का लोको वर्कशॉप स्थापित हुआ।
इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की रजत जयंती पर रेलवे स्टेशन के सामने क्लॉक टॉवर बनाया गया। उसी के नाम से 1895 में विक्टोरिया अस्पताल बनाया गया। फॉयसागर झील को पेयजल स्रोत के रूप में 1892 में बनाया गया। इंग्लैंड की महारानी मेरी 1911 में अजमेर आई और उनकी यात्रा की स्मृति में 1912 में किंग एडवर्ड मेमोरियल की स्थापना की गई।

तेजवानी गिरधर
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