संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन जी महारासा ने फरमाया कि संसार के सभी जीव सुख चाहते हैं। आचारांग सूत्र में कहां है “सव्वे जीवा सुहसाया दुख पडिकुला “यानी सभी जीव सुख और साता चाहते हैं ,दुख कोई नहीं चाहता ।गहरी नींद से जगा कर भी व्यक्ति को पूछा जाए तो भी वह यही कहेगा कि शांति,सुख,और समाधि चाहता हूं ,लेकिन फिर भी व्यवहार में देखा जाता है कि संसार में कितनी विभिनताए और विचित्रताये मौजूद है। कोई गरीब, कोई अमीर, कोई बलवान, कोई दुर्बल, कोई बुद्धिमान कोई मूर्ख यह सब सुख और दुख रूप यह संसार है ।मगर याद रखना कि यह सुख और दुख व्यक्ति के स्वयं के निमंत्रण पर आए हैं मन ,वाणी या कर्म से किसी न किसी रूप में आप ही ने इन्हे निमंत्रण दिया है ।इसीलिए भगवान की वाणी कहती है कि हे जीव तू स्वयं ही तेरे सुख और दुख का कारण है ।एक प्रयोग करके देख ले ,एक बाल को तेजी से दीवार की तरफ फेकिय वह उतनी ही तेजी से वापस लौट कर आपके पास आती है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है ।हमारी प्रवृतियां दो प्रकार की होती है एक अशुभ दूसरी शुभ ।अशुभ प्रकृति को हम पाप और शुभ प्रवृत्ति को पुण्य कहते हैं ।तो हम प्रयास करें कि पाप रूपी अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रहकर पुण्य रूप शुभ प्रवृत्तियों में आने का प्रयास करें। अगर ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ हमारा हो पाया तो सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा ।
धर्म सभा को पूज्य श्री सौम्यदर्शन जी महारासा ने भी संबोधित किया
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेडा ने किया।
पदम चंद जैन
चतुर्मास संयोजक