आज की धर्म सभा में ओजस्वी वक्ता संवरप्रेरक संघनायक श्री प्रियदर्शन मुनि जी महाराज साहब फरमाया कि जीव पापमय संसार छोड़कर श्रमणत्व की दिशा में किस प्रकार आगे बढ़ा जाए। पाप बंध के क्रम में आयुष्यबल प्राण की हिंसा कैसे होती है इस सूत्र पर प्रकाश डालते हुए फरमाया कि सभी प्राणों का आधार आयुष्य बल प्राण है। आयुष्य पूर्ण रूप से भोगा जाता है ,तो फिर अकाल मृत्यु क्यों ?इसका समाधान देते हुए फरमाया कि जिस प्रकार रेत की घड़ी का यदि छिद्र बड़ा कर दिया जाए तो वह रेत समय से पूर्व ही खिर जाती है ।उसी प्रकार आयुष्य के दलित समय से पूर्व किसी भी उपक्रम से समाप्त हो सकते हैं ।जैसे आत्महत्या, जल में डूब कर अथवा अग्नि में जलकर ।
आयुष्य दो प्रकार का होता है सोपकर्मी और निरुपकर्मी।24 तीर्थंकर ,चक्रवर्ती आदि 63 शलाग्निय पुरुष , नारकी व देवता का आयुष्य तो निरुपकर्मी ही होता है ।जो किसी उपक्रम के लग जाने पर भी समय से पूर्व समाप्त नहीं होता है। पर हमारा आयुष्य सोपकर्मी होता है ।आयुष्य बल प्राण जीव के ही होता है , अजीव के नहीं । जिवो का वास 14 रज्जू लोक में केवल त्रसनाल में ही होता है, अलोक में नहीं। एक रज्जू का प्रमाण बताते हुए आप श्री ने फरमाया कि कितने ही मन लोहे का भार वाला गोला ऊपर से फेंकने पर 6 माह में जितनी दूरी तय करें वह एक रज्जू होता है। 7:25 रज्जू के भाग में नारकी व 7 रज्जू से कम का ऊर्ध्वलोक है। अधोलोक में नारकी जीवों का निवास है ,तथा मध्यलोक (त्रियचलोक) में मनुष्य व त्रियच हैं । नारकी के 14 , त्रियच के 48 मनुष्य के 303 व देवता के 198 भेद बतलाए ,इस प्रकार जीव के 563 भेद होते हैं. उनके आयुष्य बल प्राण को समझ कर इसकी विराधना से बचने का प्रयास करें ।
धर्म सभा को पूज्य श्री सौम्य दर्शन मुनि जी महारासा ने भी संबोधित किया।
धर्म सभा का संचालन बलवीर पीपाड़ा ने किया।
पदम चंद जैन
*मनीष पाटनी,अजमेर*