संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि साधक हमेशा प्रभु से यही अरदास करता है कि, हे प्रभु मुझे ऐसी शक्ति देना कि मैं इस पाप की दुनिया से मुक्त हो जाऊं और संयम की दुनिया में प्रवेश पा जाऊं ।जो व्यक्ति पाप कर्म करता है वह हर पल भयभीत रहता है। मगर जो पाप नहीं करता उसे कोई भी डर नहीं रहता । तीसरे पाप अदतादान को आप सुन रहे हैं ।आगम में तप का ,वचन का, रूप का ,आचार का भी चोर होता है, यह बताया है ।
तपस्वी नहीं होते हुए भी तपस्वी कहलाना यह तप की चोरी है। किसी राजकुमार ने दीक्षा ली उसके बाद उसी के समान रूप वाले किसी मुनि के पास आकर कोई व्यक्ति पूछे कि आप तो वही राजकुमार हो क्या ?तब वह नहीं होते हुए भी अपने आप को वैसा बताना, यह रूप की चोरी है।
वयतेने, यानी वचन का चोर !मुख से कही गई बात के अनुसार प्रवृत्ति नहीं करना या अच्छा प्रवचनकार नहीं होते हुए भी पूजा, मान, सम्मान पाने के लिए अपने आप को अच्छा प्रवचनकार कहलाना।
आचार भाव का चोर यानी आचारवान नहीं होते हुए भी अपने आप को आचारवान बतलाना। साधु नहीं होते हुए भी साधु कहलाना और श्रावक नहीं होते हुए भी श्रावक कहलाना।एक शब्द है आचार भ्रष्ट और दूसरा शब्द है दर्शन भ्रष्ट ।कहते हैं कि आचार भ्रष्ट को तो फिर भी मोक्ष हो सकता है, मगर दर्शन यानी श्रद्धा से सिद्धांत से भ्रष्ट को मोक्ष नहीं हो सकता ।
इस प्रकार तप ,रूप, वचन और आचार की चोरी करने का परिणाम प्रभु ने फरमाया कि या तो मुक पशु योनि में जाना पड़ेगा या फिर किलविषयक देव बनना पड़ेगा ।जहां फिर बोध को प्राप्त करना ही कठिन हो जाएगा।
इसी के साथ एक वीर्य चोर भी बताया है। यानी शक्ति होते हुए भी धर्म कार्य में प्रवृत्ति नहीं करना। जैसे प्रेरणा मिलने पर भी संवर, भिक्षु दया, तपस्या या सेवा आदि कार्य नहीं करना ।12 व्रतधारी श्रावक या साधु बनने का सामर्थ्य होते हुए भी प्रमाद में रहना।
गुरुदेव तो फरमाते थे कि शक्ति होते हुए भी जो माता-पिता या गुरुजनों की वृद्ध जनों की सेवा नहीं करता है, वह महा पापी के समान है ।आप में शक्ति है सामर्थ्य है आप अपने आप को शक्तिवान और पराक्रमवान बनाने का प्रयास करें और चोरी के पापों से बचने का प्रयास करें । आज दिन तक जाने अनजाने में जो कुछ चोरी संबंधी पाप हुआ है उसकी अंतरात्मा की साक्षी से मिच्छामी दुक्कडम देने का प्रयास करें ।
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पदमचंद जैन