*शुद्ध भावना से देने वाला दाता और शुद्ध भावना से लेने वाला साधक दोनों ही सुगती के अधिकारी: गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि*

संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि एक प्यारा सा सूत्र चल रहा था की शुद्ध भावना से देने वाला दाता और शुद्ध भाव से लेने वाला साधक,दोनों ही सुगती के अधिकारी होते हैं।प्रभु महावीर स्वयं भी आहार आदि ग्रहण करने में व्यवहार शुद्धि आदि का पूरा ध्यान रखते थे। उन्ही प्रभु की मंगलमय जीवन गाथा को सुनने का शुभ अवसर हमें प्राप्त हो रहा है कि चौराकसन्नीवेश में राजा के सैनिकों ने प्रभु को गुप्तचर समझकर पकड़ लिया। प्रभु तो मौन साधना में थे। भेद खुलवाने के लिए गले में रस्सी डालकर कुएं में डाला गया और अंत में फांसी के फंदे पर लटकाया गया। मगर आश्चर्य की फांसी का फंदा बार-बार टूट जाता। क्योंकि प्रभु तो चरम शरीरी जीव थे,ऐसे मृत्यु को प्राप्त नहीं कर सकते थे ।तब उत्पलनेमेतिक की बहनों ने आकर राजा को भगवान के बारे में बताया। राजा ने परिचय जानकर प्रभु से माफी मांगी।
एक बार प्रभु को कॉलहस्ति चोर ने पकड़ लिया तब उसके भाई जो पहले राजा सिद्धार्थ की सेवा में था उसने प्रभु का परिचय दिया।
गौशालक के द्वारा तापस का तिरस्कार कर देने और उसे जुओं का घर कह देने पर क्रुद्ध होकर उसने गौशालक पर तैजोलेशिया का प्रहार कर दिया। तब दया करके प्रभु महावीर ने शीतोलेश्या छोड़कर गौशालक को बचाया।भगवान ने विचार किया कि इधर विचरण करने पर कोई ना कोई आकर मुझे कष्ट से बचा लेता है,इसलिए मुझे कर्मों की निर्जरा के लिए अनार्य देश में जाना चाहिए। प्रभु अनार्य देश में गए वहां पर लोग उन पर कुत्ते छोड़ देते, लाठियां मारते ,तिरस्कार करते, आहार पानी आदि भी सुलभ नहीं था। मिलता भी तो रुखा सुखा ही मिलता।प्रभु ने उन सारे कष्टो को समभाव से सहन किया।
गौशालक जो साथ था उसने नियति के सूत्र को ही पकड़ लिया। प्रभु से तेजोलेश्या प्राप्त करने की विधि सिख कर,लोगों पर अपना प्रभाव जमाने और तेजोलेश्या को सिद्ध करने के लिए प्रभु का साथ छोड़कर विचरण करने लगा।
गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि दसवेंकालिक सूत्र के पांचवें अध्ययन का नाम है पिंडेसना है इसमें साधु की गोचरी चर्या का वर्णन है।यह अध्ययन मुख्य रूप से तीन चीजों पर टिका हुआ है गवेशना यानी गोचरी जाते सुषता या शुद्ध अशुद्ध का विवेक रखना।। गृहवेष्णा यानी आहार आदि ग्रहण करते समय शुद्ध अशुद्ध का विवेक रखना और परिभोगेशना यानी आहार आदि भोगते समय शुद्धि अशुद्धि का विवेक रखना। इसमें बताया गया है कि जो काल गृहस्थी के लिए आहार का हो उस काल में ही साधु गोचरी के लिए जाए। इरिया समिति का पालन करते हुए विवेक पूर्वक गमन करें। धुंध व बारिश आदि में नहीं जाए। वेश्या आदि के मोहल्ले में नहीं जाए। जिस घर के बाहर गाय, कुत्ते या भिखारी आदि रोटी आदि के लिए खड़े हो तो वहा साधु उनको उलांघ कर नहीं जाए। जो घर वाले साधु से अप्रीति रखें साधु उस घर में भी नहीं जाए। साधु आहार आदि के लिए घरों में कम से कम समय लगाएं। क्योंकि बहन अकेली हो तो वहां पर साधु को ज्यादा रुकना नहीं होता है।
आहार आदि भोगते समय कैसा भी आहार हो, सरस या नीरस उस पर ममत्व भाव नहीं रखते हुए साधु को आहार आदि ग्रहण करना चाहिए। साधु उपासरे में आकर ही आहार आदि ग्रहण करें, लेकिन वृद्ध साधु बाल साधु या लंबा विहार करने की स्थिति में गृहस्थ की आज्ञा लेकर गृहस्थी के घर में भी आहार किया जा सकता है।इस प्रकार साधु अपनी आहारचर्या को भगवान के बताएं अनुसार निर्दोष रखने का प्रयास करें।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन

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