गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि दसवेंकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में धर्म के वास्तविक स्वरूप के बारे में बताया गया है।इसमें उन 18 स्थान के बारे में बताया गया है जिनका वर्णन करना एक साधु के लिए आवश्यक होता है।इसमें सबसे पहले महाव्रतों का पालन और 6 काय के जिवो की विराधना का त्याग करने की बात कही है। इसमें साधु के लिए स्नान एवं विभूषा के त्याग की बात कही है।क्योंकि स्नान एवं विभूषा से शरीर के प्रति राग का भाव बढ़ता है। लेकिन साधु को तो बस संयम का पालन हो जाए, इस हेतु ही शरीर का ध्यान रखना है।
साधु किसी भी रूप में गृहस्थी से सेवा नहीं लेवे और किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखें।बस जो संयम पालने के लिए आवश्यक हो वह सामग्री साधु अपने साथ में रख सकता है।
साधु को बिना आज्ञा के कुछ भी ग्रहण नहीं करना होता है अतः जो भी लेवे मांग कर और आज्ञा लेकर ही ग्रहण करने का प्रयास करें।
सातवें अध्ययन का नाम सुवाक्य शुद्धि। इस अध्ययन में भाषा संबंधी विवेक को धारण करने की बात कही गई है। हमें ऐसी किसी भी प्रकार की भाषा का प्रयोग नहीं करना जो भाषा मोक्ष में जाने में बाधा उत्पन्न करें। सत्य को भी मिठास के साथ बोलने का प्रयास करें।
इस अध्ययन में बताया कि अंधे को अंधा, काने को काना कहनावह चोर को चोर भी नहीं कहना चाहिए। साधु को किसी भी व्यक्ति वस्तु आदि के विषय में सावध्यकारी भाषा नहीं बोलनी चाहिए। कैसा भी प्रसंग क्यों नहीं हो,सोच समझकर विचार पूर्वक बोलने का प्रयास करें ।
आठवें अध्ययन में साधु को आचार निस्ठ बनने की बात कही है। जैसे एक बछड़े का ध्यान अपने चारे और पानी पर रहता है उसी प्रकार गोचरी में जाने वाला साधु अपना पूरा ध्यान केवल गोचरी पर ही रखें ।कहीं पर गोचरी मिले या नहीं मिले साधु उस गांव या नगर वालों की निंदा नहीं करें। साधु खुद की प्रशंसा व दूसरों की निंदा नहीं करें।
साधु को दोष लगने पर अपने पापों की आलोचना करनी चाहिए। संथारे से भी मुख्य संलेखना को बताया गया है।जिस प्रकार कांटे के निकल जाने पर व्यक्ति आराम महसूस करता है, उसी प्रकार संलेखना द्वारा पाप के हल्के होने पर साधक को भी आनंद की अनुभूति होती है।
इसी के साथ साधु बिना भाई की साक्षी के अकेली स्त्री से चर्चा वार्ता नहीं करें।साधक को प्रेरणा प्रदान की गई है कि तुम जितना अपनी आत्मा में रहोगे उतना ही आत्मा का आनंद निरंतर बढ़ता जाएगा। अगर ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ रहा तो यत्र तत्र सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा।
धर्म सभा में दसवेकालिक सूत्र का मूल उच्चारण पाठ गुरुदेव श्री विरागदर्शन जी महारासा द्वारा फरमाया गया।
पूर्व शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने गुरु चरणों में पहुंचकर आशीर्वाद प्राप्त किया।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन