अजमेर की पत्रकारिता और सम्मान

मुजफ्फर अली
मुजफ्फर अली
अजमेर से उठी कोई बडी खबर जहां तक मुझे याद है 1997 के बाद नहीं हुई है जिसने राष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्ने पर जगह पाई हो। देश या विदेश के किसी बडी शख्सियत के दौरे को छोड दें क्यूं कि उसमें अजमेर के पत्रकारों की भूमिका सिर्फ यात्रा विवरण देने तक सीमित रहती है या बडी हस्ती ने क्या बोला उसका हवाला होता है। 1988 में संभवत: दैनिक न्याय में सुरेश कासलीवाल द्वारा खादिमों और दरगाह दीवान के बीच रिश्तों व वंश को लेकर स्टोरी का श्रंखलाबद्व प्रकाशन हुआ था जिसने एक वर्ग विशेष में खलबची मचा दी थी साथ ही देश भर में उसकी चर्चा हुई थी। फिर 1992 में ब्लैक मेल कांड को लेकर दैनिक नवज्योति में संतोष जी की रिपोर्ट से देश भर में हलचल मच गई थी। तीसरी बडी घटना 1997 में सांम्प्रदायिक दंगों को लेकर हुई जब अजमेर में कफ्र्यू लगा और अजमेर के पत्रकारों ने निष्पक्ष होकर अपनी भूमिका अदा की, जो राष्ट्रीय खबर बनी। उसके बाद अजमेर सामान्य रहा है तो पत्रकारिता भी सामान्य हो गई। इस बीच अजमेर के वरिष्ठ पत्रकारों ने भी शायद अपने कलम को बंद कर अपनी जेब में टांक लिया। इलेक्ट्रिोनिक चैनल का उदय हुआ और प्रिंट और इलेक्ट्रिक मीडिया में नई कोंपले फूट गईं। अपनी कलम से कागज पर खबर लिखकर ट्रेडल मशीन पर कंपोज़ के लिए देने से लेकर अखबार छपकर आने तक अपने मन में उमडते संघर्ष की जिन लहरों का सामना पुराने पत्रकारों जैसे गिरधर तेजवानी, प्रताप सनकत, सुरेश कासलीवाल, पी के श्रीवास्तव, सूर्यप्रकाश गांधी, प्रेम आनंदकर सहित अनेक नाम है जो इस समय छूट रहे हैं ने किया है, उन परिस्थितियों को नई पीढी आज महसूस भी नहीं कर सकती। इंद्र नटराज, मोती माखजा और सत्यनारायण जाला जैसे फोटोग्राफरर्स के एंगल आज नहीं मिल सकते। मेने वर्ष 1993 से पत्रकारिता शुरु की और ठीक उसी परिस्थितियों से गुजरा भी हूं लेकिन मै अपने आप को उपरोक्त नामों में शुमार नहीं कर सकता। लेकिन मेने अजमेर में पत्रकारिता के संघर्ष को जीया है। रमेश अग्रवाल साहब, राजेन्द्र गुजंल साहब, नरेन्द्र चौहान साहब, एस पी मित्तल साहब ने अपने स्तंभ प्रारंभ किए जो लोकप्रिय हुए और आज भी लिख रहे हैं जिन्हे लोग बडे चाव से पढते हैं। मुझे नहीं लगता कि कभी पुराने पत्रकारों को उनके संघर्ष के लिए सम्मानित किया जाएगा। आज के दौर में जैसे फिल्मों में आवार्ड के लिए लॉङ्क्षबग होती है, फिक्सिंग होती है वैसे ही शायद पत्रकारिता में होने लगा है। इसे अन्यथा ना लें मेरा उददेश्य किसी पर आरोप या भावना को ठेस पहुंचाने का नहीं बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों को अजमेर के पुराने पत्रकारों के संघर्ष के दिनों की याद दिलाना भर है।

error: Content is protected !!